स्मार्टफोन पर आंख गड़ाए एक समाज- प्रियदर्शन

हमारे देखते-देखते हमारे सामने एक ऐसी पीढ़ी खड़ी हो गई है जिसका अनुभव संसार मोबाइल की स्क्रीन से बड़ा नहीं है। 24 घंटे उसकी आंखें स्क्रीन पर लगी रहती हैं। यहीं उसका मनोरंजन भी होता है, यहीं उसको सूचना भी मिलती है, यहीं उसकी गपशप भी होती है। जिस किसी ने भी ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ वाला विज्ञापन लिखा होगा, उसे भी अंदाज़ा नहीं होगा कि एक दिन वाकई स्मार्टफोन के सहारे दुनिया इस तरह मुट्ठी में की जा सकेगी। आज वाकई यही स्थिति है। इन दिनों हम अपने सारे भुगतान मोबाइल के जरिए करते हैं, अपनी सारी स्मृतियां मोबाइल के जरिए संजोते हैं, अपने सारे विचार मोबाइल के जरिए रखते हैं। जो ज्ञान हमें कहीं नहीं मिलता उससे मोबाइल पर खोजते हैं। यहां तक कि निजी संबंधों के हर्ष और विषाद में भी सोशल मीडिया के ज़रिए ही अपनी संवेदना अभिव्यक्त करते हैं।

यह एक बदली हुई दुनिया है। जो पीढ़ी फिर भी पिछली सदी में बड़ी हो गई, वह एक हद तक इस दुनिया से मुक्त है। लेकिन जिन बच्चों ने इस नई सदी में आंख खोली है या होश संभाले हैं, वह तो बिल्कुल मोबाइल को अपनी आंख और कान ही नहीं, अपना दिमाग भी बनाए हुए हैं।
इसमें शक नहीं कि मोबाइल ने उनको बहुत कुछ दिया है। बिना अखबार पढ़ें सारी खबरें अब उन तक पहुंच जाती है, बिना टीवी देखें मनोरंजन के इफरात साधन उन तक चले आते हैं, बिना दुकान गए वे खरीददारी कर लेते हैं, घर बैठे ही खाना मंगा लेते हैं, रेल और हवाई जहाज़ के टिकट कटा लेते हैं, टैक्सी बुक कर लेते हैं और इस तरह पाते और मानते हैं कि सारी दुनिया उनकी मुट्ठी में है।
सतह पर शायद यह सच भी लगता है। लेकिन यहीं पर ठहर कर सोचने की ज़रूरत है। दुनिया क्या वही है जो हमारे इस्तेमाल से बनती है? क्या सारे भुगतान कर लेना, घर बैठे खाना मंगा लेना, टीवी देखे बिना ख़बरें जान लेना, कहीं आने-जाने के टिकट कटा लेना, टैक्सी बुक कर लेना, क्या यही सारी दुनिया है? इस सवाल पर ध्यान से विचार करें तो हम पाते हैं कि हम मोबाइल नहीं चला रहे हैं, मोबाइल हमें चला रहा है। उसने हमें बिल्कुल स्क्रीन तक सीमित कर दिया है। स्क्रीन के बाहर का हमारा संवेदन-संसार जैसे छीजता जा रहा है ख़त्म होता जा रहा है।
इसका मतलब क्या है? यही कि जीवन हमारे लिए बिल्कुल इकहरा हो गया है। हम सब कुछ का उपभोग कर ले रहे हैं, सारे त्योहार मना ले रहे हैं, सबसे सोशल मीडिया पर बतिया ले रहे हैं, लेकिन कुछ भी हमारे दीर्घ अनुभव का हिस्सा नहीं बन पा रहा, कुछ भी हमारी स्मृति के विन्यास में समा नहीं रहा। दूसरों के लिए हमारे पास लगभग एक जैसे सवाल रह गए हैं। अक्सर उनके जवाब की भी हम प्रतीक्षा नहीं करते क्योंकि हमें मालूम होता है कि जवाब क्या आएगा। इसीलिए जो जवाब आएगा, वह तत्काल दिमाग से फिसल भी जाएगा। हम न हम खुशी को जी पाएंगे न शोक मनाने या जताने लायक बचेंगे। खुशी में भी अनमनापन रहेगा और शोक में भी शोर होगा।

दरअसल यह बात ठीक से समझने की है कि जिसे हम दुनिया कहते हैं और मुट्ठी में लेना चाहते हैं, वह असल में मुट्ठी से फिसलने का नाम है। दुनिया ठोस चीजों से नहीं बनती, बस सिर्फ़ ख़यालों से भी नहीं बनती, वह चीज़ों से हमारे रिश्तों से, उनको लेकर हमारी व्याख्या से बनती है। वह हमारे अनुभव से बनती है और हमारी स्मृति से बनती है। लेकिन अनुभव कहां से बनते हैं? स्मृतियां कहां से बनती हैं? वह जीवन को ध्यान से देखने से. उसको याद रखने से, उसकी अलग-अलग परतों को पहचानने से बनती हैं। हम कई बार किसी अनायास अनुभव का सुख लेते हैं, कई बार किसी अप्रत्याशित विचलन को अनुभव की थाती मानते हैं।
लेकिन क्या हमारे जीवन से ऐसे अवसर लगातार कम नहीं होते जा रहे? 50 बरस से भी ऊपर हुए, ऐल्विन टॉफलर ने अपनी किताब ‘फ्यूचर शॉक’ में इस बात पर चिंता जताई थी कि अब कोई भी अनुभव अप्रत्याशित नहीं है, सब कुछ पहले से नियोजित है, देखा-भाला और संभाला हुआ है। आज इस स्मार्टफोन युग में हम पा रहे हैं कि अनुभव धीरे धीरे चुक रहा है। हमारे चारों तरफ इतनी सारी चीजें हैं जो पहले नहीं थीं, लेकिन हम उन्हें देख और छू भर पा रहे हैं, गाहे-बगाहे उनका इस्तेमाल कर ले रहे हैं, लेकिन उनको जी नहीं पा रहे, उनका सुख हासिल नहीं कर पा रहे।
तो यह जीवन का छीजते चले जाना है, उसका एकरैखिक होते जाना है जो इस स्मार्टफोन युग की देन है। इस स्मार्टफोन युग में रफ़्तार पर, तात्कालिकता पर सबसे ज़्यादा ज़ोर है। हर ख़बर सबसे पहले, सबसे जल्दी चाहिए। एक त्रासदी आती है, उस पर हम ठीक से विचार तक नहीं कर पाते कि वह चली जाती है और दूसरी त्रासदी चली आती है। हमारी स्मृति में कुछ नहीं टिकता, हमारे अनुभव में कुछ नहीं जुड़ता। इससे ज़्यादा बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमने जो अनुभव अभी ठीक से हासिल भी नहीं किया, जिया भी नहीं, उसे साझा करने लगते हैं। लोग किसी पर्यटन स्थल पर जाते हैं, उसको ठीक से देखते बाद में हैं- या शायद देख भी नहीं पाते- बस उसकी तस्वीरें खींच कर सोशल मीडिया पर अपलोड करते हैं और दूसरों की बधाइयों का जवाब देने में जुट जाते हैं। किसी पहाड़ पर जाकर अगर आपने हवाओं की चुभन महसूस नहीं की, पत्थरों का पथरीलापन नहीं देखा, पेड़ों की संन्यासी मुद्रा के बीच नाचती पत्तियों को नहीं देखा तो क्या देखा? लेकिन यह देखने की फुरसत किसे है? अपने-आप को भी लोग सब अपनी सेल्फ़ी में देख रहे हैं।
दरअसल रफ़्तार बेशक, बहुत आकर्षित करती है, लेकिन वह बहुत अच्छी चीज़ नहीं है। गांधी जी इस रफ़्तार को बहुत आलोचकीय निगाह से देखते थे। उन्होंने एक किताब- संभवतः ‘फैलेसी ऑफ स्पीड’ के हवाले से समझाया था कि अगर आप किसी जंगल में टहलते हैं तो जंगल आपको सुंदर, हरा-भरा और मित्रवत लगता है। लेकिन अगर उस जंगल में आप दौड़ने लगें तो आपको हर पेड़, हर पौधा, हर फूल अपने रास्ते की रुकावट महसूस होगा। यह रफ़्तार है जो चीज़ों से हमारा रिश्ता बदल देती है। इस रफ़्तार की वजह से ही वे ट्रेनों की शिकायत करते थे। उनका कहना था कि ट्रेनों ने हमें अजनबी बनाया है। पहले आदमी पैदल चलता था तो हर जगह को देखता-समझता, आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ता था। अब वह एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाता है और पाता है कि यह तो परायी सी और अनजान सी जगह है।
विषय पर लौटें। स्मार्टफोन ने यह परायापन बढ़ाया है। हमारा संकट यह है कि हमने बिल्कुल आभासीय रफ़्तार हासिल कर ली है और वास्तविक रफ़्तार खो दी है। हमें एहसास तक नहीं है कि स्मार्टफोन हमें कितना अजनबी, कितना अकेला बना रहा है। आज के बच्चों को देखिए तो वे नए लोगों से मिलने में हिचकते हैं। बहुत सीमित शब्दावली में आपस में संवाद करते हैं और उसी में संतुष्ट रहते हैं।
क्रिस्टोफ़र मार्लो के मशहूर नाटक ‘फॉस्टस’ के नायक को ईश्वर मेफिस्टोफिलीस नाम का एक सेवक देता है जो कई बरसों तक उसकी हर इच्छा पूरी करता रहता है। फॉस्टस की मुट्ठी में जैसे सारी दुनिया है। लेकिन 12 बरस बाद जब यह अवधि ख़त्म हो चुकी होती है, तब वह पाता है कि दरअसल मेफिस्टोफिलीस उसका ग़ुलाम नहीं था, वही मेफ़िस्टोफिलीस का ग़ुलाम हो गया था। मेफिस्टोफिलीस जो चाहता था, वह उससे करवा लेता था।
शायद स्मार्टफोन से नई पीढ़ी के रिश्ते का सच भी यही है। वह सबकुछ का विकल्प बन गया है। खबरों के लिए अखबारों या टीवी की ज़रूरत नहीं है, हंसने-बोलने के लिए मित्रों की ज़रूरत नहीं है, फ़िक्र करने के लिए परिवार की ज़रूरत नहीं है, सेहत का खयाल रखने के लिए सगे संबंधियों की ज़रूरत नहीं है, धीरे-धीरे अपनी भी ज़रूरत नहीं है। बस हमें स्मार्ट फोन की एक ज़रूरत में ढलते जाना है। जीवन में सबसे जरूरी चीज़ उसकी बैटरी का बचे रहना और उसे समय पर रिचार्ज करा लेना है।
संभव है, वर्तमान या भविष्य उतना धुंधला न हो, जितना इन पंक्तियों के लेखक को लग रहा है- भले ही यह उसके अनुभव-संसार से निकला है। लेकिन इस संसार की सीमाएं भी तो होती हैं। हम सब जानते हैं कि जीवन बहुत ढीठ होता है। वह हर जगह है, अपने लिए नई संभावनाएं, नए अंकुरण की जगह खोज लेता है। संभव है इस स्मार्टफोन युग में भी वह अपने-आप को किसी और ढंग से पुनर्परिभाषित करे। लेकिन फिलहाल तो यही ऩज़र आ रहा है कि हम बहुत कुछ खोते जा रहे हैं और यह नहीं मालूम कि आगे क्या पाएंगे।
प्रियदर्शन वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं।
‘कादंबिनी’ के सितंबर अंक में प्रकाशित ।