लोकमंच पत्रिका

लोकचेतना को समर्पित
लता जौनपुरी की सात गजलें

1

आँख पर पट्टी चढ़ाकर यूँ न प्यारे ध्यान कर

छद्मवेशी रावणों के चेहरों की  पहचान कर

मुश्किलों में भी मिलेगी तुझको मंज़िल की डगर

सिर्फ़ अर्जुन की तरह तू लक्ष्य  का संधान कर

ख़ुद अहिल्या आगे बढ़कर मुक्त हो हर श्राप से 

क्यों किसी की बाँट जोहे वो मसीहा मान कर

हश्र क्या होगा चमन का बेख़बर है बागबाँ

इक लुटेरे को ही पहरेदार सच्चा मानकर

अम्न होगा हर तरफ बस नफ़रतों  को कर दहन

प्यार की गंगा बहाकर विश्व का उत्थान कर

रंक को  राजा बनाना वक़्त का ही खेल है

वक़्त के इस  खेल का तू हर घड़ी सम्मान कर

(2)

 नफ़रतों के ताज़िरों पर ख़ुश है क़ुदरत आजकल

इनके कारोबार में है ख़ूब बरकत आजकल

मीर ओ ग़ालिब की तरह अशआर मैं कैसे कहूँ 

शायरी में काम कब आती है उल्फ़त आजकल

रौनकें बाज़ार की जादूगरी है जान लो

फाँस लेना जाल में उनकी है फ़ितरत आजकल

शाम ढलते ही तेरी यादों के पंछी घेर कर

मेरे दिल को देते हैं पैग़ाम ए उल्फ़त आजकल

क्या हुआ इस शह्र को भयभीत है हर आदमी

हर तरफ़ फैली है क्यों बेख़ौफ़ दहशत आजकल

किस दिशा में ढूँढ़ते हो यार ख़ैर-ओ-आफ़ियत

बढ़ गई है चारसू ही बुग्ज़ ओ नफ़रत आजकल

चारागर सच्चा वही है मेरी नज़रों में लता

बेसहारों पर जो करता है इनायत आजकल 

(3)

दोस्त होने का हक अब अदा कीजिए

राह ए उल्फ़त में हूँ मैं दुआ कीजिए

उम्र भर रीढ़ सीधी न हो पाएगी

सबके सम्मुख न ऐसे झुका कीजिये

है फटा उसका दामन हटा लें नज़र

मुफ़लिसी यूँ किसी की ढँका कीजिए

जब से झुलसा है सूरज की गर्मी से वो 

कह रहा है शजर अब हरा कीजिये

राह कितनी ही मुश्किल हो ऐ हमनवा

सच से पीछे न हरगिज़ हटा कीजिए

है चुनावों का मौसम सँभलिए जरा

यूँ न वादों पे उनके लुटा कीजिये 

प्यार ग़ज़लों से है गर लता आपको

दर्द मज़दूर का भी लिखा कीजिये

(4)

उदास राह पे बचपन है क्या किया जाए

अजब-सी दौड़ में जीवन है क्या किया जाए

छुपा लूं कैसे भला ख़ामियां तुम्हारी मैं

मेरा वजूद ही दर्पण है क्या किया जाए

यहाँ हरेक मसर्रत पे सूद लगना है

ये ज़िन्दगी भी महाजन है क्या किया जाए

लुटा सुहाग तो रूठी हुई हैं सब ख़ुशियां

ख़मोश उसका अब आँगन है क्या किया जाए

बढ़ा है आरियों का शोर जब से उपवन में

बहुत उदास मेरा मन है क्या किया जाए

(5)

ज़ह्र घोल जाने में देर कितनी लगती है

आदमी लड़ाने में देर कितनी लगती है

उम्र बीत जाती है एक घर बनाने में

गाँव इक जलाने में देर कितनी लगती है

वक़्ते-ग़म अगर साया साथ छोड़ दे अपना

दिल के टूट जाने में देर कितनी लगती है

जब गुरुर हो अपनी जीत का मुकम्मल तो

दाँव हार जाने में देर कितनी लगती है

लोरियाँ सुना दे माँ रात में अगर हमको

नींद को बुलाने में देर कितनी लगती है

हो यकीं अगर ग़म में है ख़ुदा मेरा रहबर

क़हक़हे लगाने में देर कितनी लगती है

बागबां हर इक गुल पर गर रखे नज़र इक सी

तो बहार आने में देर कितनी लगती है

(6)

न्याय की हालत है ऐसी आज के हालात में

धुंध छाई हो कि जैसे सर्दियों की रात में

 रास्ते आसां नहीं हैं ज़िंदगी की राह के

हर गली हर मोड़ पर हैं धूर्त बैठे घात में

बाप के दम पर अकड़ते थे सभी के सामने

दूर घर से वो हुए तो आ गए औकात में 

 माल ओ दौलत से न क़ायम रह सकेगी ज़िंदगी

ये सदा रहती है ज़िंदा प्यार के जज़्बात में

धर्म भी लाचार सा रोता है बेघर की तरह

गर जला है घर किसी का मज़हबी उत्पात में

(7)

युगों से है नदियों ने ही मान रक्खा

समंदर ने प्यासों का कब ध्यान रक्खा

चुभे ख़ार जब भी तो हम मुस्कुराए

ज़माने को हमने यूँ हैरान रक्खा

कभी सरहदों पर, कभी मुश्किलों में

जवानों ने ही देश का मान रक्खा

है मंज़िल बहुत दूर समझा जो हमने

सफ़र में बहुत कम ही सामान रक्खा

ख़ुदा की इबादत फ़क़त मेरा मक़सद

नज़र में न हिन्दू मुसलमान रक्खा

वतन की ये मिट्टी है पहचान मेरी

फ़िदा जां हो इस पर ये अरमान रक्खा

भटकते ‘लता’ पाँव कैसे तेरे जब

ख़ुदा को ही अपना निगहबान रक्खा

लता जौनपुरी, B-35, सुखमय विहार कालोनी, चांदमारी, वाराणसी