त्यागमूर्ति कैकेयी- चम्पा प्रिया

भले ही कोई भारतीय महाकाव्य रामायण का पाठ न किया हो परन्तु कीर्तन, नाटक, परिचर्चा, आलोचना, दूरदर्शन, अपने घर के बड़े-बुजुर्गो के माध्यम से इसकी कहानी प्रायः सभी लोग जानते हैं । जिसका जीवन्त प्रमाण है रामायण में घटित घटनाओं का भक्ति, आदर्श, त्याग, कपट, बलिदान, यश, गौरव का उदाहरण हर जगह प्रायः लोगों के द्वारा प्रयोग किया जाता है। जैसे – राम जैसा आज्ञाकारी पुत्र- मर्यादा पुरोषत्तम राजा, लक्ष्मण-भरत जैसे प्रेम करने वाले भाई, सीता जैसी बहू-बेटी-माता, रावण जैसा दुराचारी, विभीषण जैसा घर का भेदी, हनुमान जैसा भक्त, वाल्मीकि जैसे मुनि, कैकेयी जैसी स्वार्थी माँ, उर्मिला जैसी तपस्विनी पत्नी आदि ।

राम एक सामान्य व्यक्ति के रूप में इस धरा पर अवतरित हुए और मानव जीवन की सारी परेशानियां, मर्यादा, रीति-रिवाज, धर्म, समस्याओं को साधारण जन की तरह भोगे परन्तु साधारण होते हुए भी उन्हें ‘राम’ से ‘प्रभु राम’ बनने में सबसे अहम् भूमिका माता कैकेयी का है । मैं जानती हूँ मेरी इस बात से आप सहमत नहीं होंगे क्योंकि अब तक रामायण के सभी पात्रों को लेकर जितने लेख, पुस्तक, आलोचनाएँ हुई है उसमें कहीं कैकेयी को गलत, कहीं निर्दयी, तो कहीं स्वार्थी का पद दिया गया है साथ ही उसके पश्चाताप को भी दिखाया गया है । परन्तु उसकी महानता, बलिदान, त्याग, सहनशीलता, उदारता को किसी ने नहीं देखा । उसके पश्चाताप करने पर राम उसे माफ कर देते हैं परन्तु पाठकों के नजरों में वह आज भी एक अपराधिन बन इतिहास के पन्नों में मौन है ।
यह बात निर्विवाद है कि भगवान तब इस धरा पर अवतरित होते है जब धर्म की हानि होती है । वे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस भौतिक संसार में लीलाएँ करने को बाध्य होते हैं और अपने महान उद्देश्य पूर्ति के बाद अपने धाम लौट जाते हैं । राम का जन्म ही रावण के संहार के लिए हुआ था जो अनेक सांसारिक लीलाओं के माध्यम से अंतत पूर्ण हुआ और अपने कार्यपूर्ति के बाद वे जल समाधि ले लेते हैं ।

सारी अपवादों को दरकिनार कर एक बार आप स्वयं विचार कीजिए अगर कैकेयी यह वचन अपने पति दशरथ से नहीं मांगती कि – राम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को अयोध्या का राजा घोषित किया जाए । तो क्या राम का वह उद्देश्य पूर्ण हो पाता जिसके लिए वे इस घरा पर अपतरित हुए थे ? अगर कैकेयी ऐसा प्रस्ताव दशरथ के आगे न रखती तो न ही राम वन जाते और न ही वे ‘राम’ से प्रभु राम, मर्यादापुरोषत्तम राम, वचन बद्ध राम, सीया के राम, हनुमान के स्वामी राम बन पाते । न उनकी महानता, संयम, सहनशीलता, शक्ति, धैर्य, संतोष, मर्यादा का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत हो पाता जिसकी व्याख्या करते हुए लोग नहीं अघाते ।
रामायण का शुभारम्भ राम के वन जाने से या यूं भी कह सकते हैं कि कैकेयी के वचन मांगने से ही होती है । घोर पश्चाताप के बाद भी कैकेयी पाठकों, राम भक्तों के लिए पूजनीय न बन पायी । कैकेयी का नाम आते ही लोगों के भौंहे सिकुड़ जाते हैं, कोई भी प्रसन्नचित से उसे याद नहीं करता । जिस तरह जामुन का रस लगे हुए स्वेत वस्त्र को अनगिनत बार धोने पर भी वह पहले की तरह नहीं दिख सकता उसी प्रकार कैकेयी के पश्चाताप के आंसू भी उसके व्यक्तित्व में पड़े निशान को धो नहीं पायी । लेकिन कैकेयी को इस तरह वही लोग देखते है जिनके चेहरे पर धूल लगी है परन्तु वे लोग आईना साफ करने में लगे हैं ।

कैकेयी के बलिदान-त्याग को देखने के लिए हमें अपने चेहरे में पड़े धूल को साफ करना होगा, तभी हम समझ सकते हैं कि कैकेयी पूरे संसार से घृणा, अप्रियता, निन्दा, अपयश, निरादर की भावना को ग्रहण कर के रामायण जैसे महाकाव्य को (मानव जीवन के साहित्यिक धरोहर को ) संसार को विरासत के रूप में दी है । हमें कैकेयी का धन्यवाद करना चाहिए, उसके इस महान बलिदान के लिए सराहना करनी चाहिए और उसे वह स्थान –सम्मान देना चाहिए जिसकी वह हकदार हैं । कैकेयी वह लौ है जो स्वयं के यश को स्वयं ही जलाकर राख कर दी और राम नाम के ज्योति को पूरे संसार में प्रकाशित कर दी । इस संसार में हर व्यक्ति अपने यश को, अपने नाम, कीर्ति, मान-प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है । परन्तु किसी और के लिए अपने यश, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा को मलिन करना पूरे संसार के लिए निन्दनीय बनना यह कैकेयी जैसी विशाल हृदय वाली स्त्री के लिए ही सम्भव है ।
लेखिका- चम्पा प्रिया नोनिया