राजेश सिन्हा की कविता – सियासती दुश्मनी

मैने सुना है दुश्मनी का
अपना एक गणित होता है
अपना एक फॉर्मूला होता है
अपना दर्शन भी होता है
और अगर आप सही में
दुश्मनी करना चाहते हैं तो
सरल सा उपाय है
फॉर्मूला का विधिवत अनुपालन
किसी भी तरह
वरना वह मुकाम तक नहीं पहुँचेगी
परिणाम मनोनुकूल नहीं होगा
अर्थात सारे प्रयास बेकार
सारे कयास भी बेकार
पर शायद वक़्त बदला बदला सा नज़र आता है
आजकल दुश्मनी की एक नई किस्म देखने को मिल रही है
“सियासती दुश्मनी”
यह अन्तस मे तो होती है
खूब होती है
भीतर की उर्ज़ा में संप्रेषित होती रहती है
दौड़ती भी है
पर स्वतः व्यक्त नहीं होती
ना तो हाव भाव से
ना ही व्यवहार से
यह इन्तजार करती है
बड़ी शिद्दत से
एक अवसर विशेष का
जिसका बकायदा सृजन
किया जाता है
पूरे ताम झाम के साथ
कदम ताल करते हुए
और फिर तमाम संचित उर्ज़ा को झोंक दिया जाता है
अभीष्ट की प्राप्ति के लिए
जहाँ नफा नुकसान का
समीकरण बिलकुल अलग होता है
कई बार जीत कर भी हार मिलती है तो कई बार
हार कर भी जीत
और तदनुरूप सियासत के परवान चढ़ने का
अंतहीन सिलसिला शुरू होता है जो शायद ही रुकता है
जिसका खामियाज़ा कभी भी वह नहीं भुगतता
जो इसमें शिरकत करता है
या जो इसे अंजाम देता है
बल्कि वह भुगतता है जो
मूक दर्शक बन खड़े होकर
तमाशा देखा करता है
कवि- राजेश कुमार सिन्हा, मुंबई
