समीर उपाध्याय ललित की कविता “ज़िंदगी यूं ही गुज़र गई”

अनगिनत अपेक्षाओं को पूर्ण करने में
ज़िंदगी के अमूल्य दिन हाथ से खो दिएं।
भौतिक सुख-वैभव की प्राप्ति करने में
कितने ही सिद्धांतों के साथ समझौते किएं।।

धन और दौलत कमाने की प्रतिस्पर्धा में
संबंधों की अहमियत को भी भूलते गएं।
स्वार्थ पर आधारित संबंधों को बनाने में
अपने परिवार को भी बेगाना बनाते गएं।।
ज़िंदगी भर सिर्फ़ ‘मेरा तेरा’ करते रहने में
ज़िंदगी का आनंद उठाना ही भूलते गएं।
विचार हीन भीड़ के साथ चलते रहने में
अकेले चलने का साहस जुटाना भूलते गएं।।
दूसरों से अपनी लकीर को बड़ा बनाने में
अपने ईमान को सरेआम बेचते ही गएं।
सिर्फ़ पैसों को अपना परमेश्वर बनाने में
इंसानियत की भावना को भूलते ही गएं।।
जवानी से बुढ़ापे तक की अंधी दौड़ में
सुनहरे दिनों की यादें संजोना भूलते गएं।
ज़िंदगी के वास्तविक मर्म को समझने में
सुधार न सके ऐसी बहुत बड़ी गलती कर गएं।।

समीर उपाध्याय ‘ललित’, मनहर पार्क : 96/A, चोटीला: 363520, जिला: सुरेंद्रनगर, गुजरात, भारत, मोबाइल- 9265717398, ईमेल- s.l.upadhyay1975@gmail.com