डॉ संजीव कुमार चौधरी की कविता- “स्तम्भ”

मैं बड़ा हूं, लोग कहते हैं,
क्योंकि,
जिस स्तंभ पर खड़ा हूं,
वह बहुत ऊंचा है,
पर मान उसका नहीं,
जबकि
मेरे सम्मान का आधार है वह,
अजीब सी विडंबना है,
वह मुझे नाम तो दिलाता है,
खुद खंभा ही कहलाता है।
सच है यह कि
मायने उसके तभी हैं,
जब वह मजबूती से
डटा रहे सीधा,
इसमें नहीं कि
यश धन के लोभ में
झुकने लगे
किसी भी एक ओर,
या फिर पिघल कर
कमोबेश पड़ जाए कमजोर,
भय, आस्था या पक्षपात की तपिश से,
अथवा,
आसमां छूने को
जमीं ही छोड़ दे अपनी,
भूलकर यह कि
मर्यादा की एक सीमा होती है
सबकी अलग अलग,
जिसे लांघने से ही
हो बेड़ा गर्क,
खो देता है
अपने होने का अर्थ।
गौरतलब है
मेरे विवेक की पराकाष्ठा,
किसी और को न मिले
इससे अधिक ऊंचाई,
तो यह जरूरी है कि
जुगत भिड़ाऊं,
अवलंब को छोटा करने की,
अपने हिसाब से तोड़ने मोड़ने की,
क्या फर्क पड़ता है यदि
ऐसा करने में खतरे में पड़ जाए
इसका ही वजूद।
भूल जाता हूं कि
जो यह धाराशाई हुआ,
हो जाऊंगा
खोकर अपनी ओज,
मैं भी जमींदोज,
इतिहास के गर्त में
शायद ही
पाएगा कोई खोज।………।।।

डॉ संजीव कुमार चौधरी, प्रोफेसर (सर्जरी) एनआईएमएस जयपुर, राजस्थान।
