राजेश कुमार सिन्हा की कविता- “खंडित किरदार”

मैं अक्सर अपने बचपन को
बहुत याद करता हूँ
बड़ा ही विरोधात्मक था वह कालखण्ड
कभी खुशी/कभी बेहिसाब उदासी
अथाह दुलार और प्यार
उतनी ही डांट और फटकार
वैसे तो कमी किसी चीज की नहीं थी
पर इच्छाएं खत्म कहाँ होती
यह सतत चलने वाली प्रक्रिया थी
एक के खत्म होते ही
दूसरी मुहँ उठाये खड़ी हो जाती थी
और सर्वाधिक आश्चर्य यह कि
बिना ज्यादा मान मनुहार के
वे पूरी भी हो जाया करतीं थी
मेरा बाल मन खुद को
किसी राज कुमार से कम नहीं समझता था
वक़्त का पहिया धीरे धीरे सरक रहा था
मैं कालेज के दिनों में बहुत लोकप्रिय था
वज़ह तो मुझे भी पता नहीं ,हाँ
शायद इसलिए कि मेरे पास
उन दिनों थोड़े पैसे हुआ करते थे
जिसे मैं बेहिचक खर्च किया करता था
मेरे कुछ दोस्त मेरे निवेश सलाहकार भी थे
जिन्हें मेरी “अनियोजित”खर्च से चिढ़ होती थी
मैं हमेशा उन्हें नजर अन्दाज़ कर देता था
यह सिलसिला यों ही चलता रहा
पर एक समय के बाद ठहराव सा आया
जब ऐसा लगने लगा कि
इस जिन्दगी को एक मुकाम की ज़रूरत है
फिर मुकाम की जद्दोज़हद शुरु हुई
भाग ,दौड़ प्रयास,कोशिश,पहल
अंतत:मुझे जीवन यापन के लिए एक अदद
नौकरी मिल गई/जिसने सारी सोच बदल दी
मैं एक मुलाजिम की श्रेणी में आ गया
मित्रों/परिचितों के अनुसार
मेरे जीवन को दिशा मिल गई थी

जो मेरी दशा को बदलने की मुहिम साबित होनी थी
अब तीन दशक से उपर हो चुके हैं
मुझे तो स्थितियाँ यथावत सी लगती हैं
पर एक बदलाव मुझमे ज़रुर हुआ है
मुझे ऐसा लगता है कि
मेरे अंदर के तमाम किरदार
अब एक किरदार में तब्दील हो गये हैं
और वह एक किरदार जिस किरदार को निभा रहा है
वह खंडित हो चुका है और हरेक खंड
एक दूसरे पर हावी होना चाहता है
और हावी होने की प्रक्रिया
असहनीय दर्द से हो कर गुजरती है
जो किसी दर्द निवारक से भी नहीं जाती
शायद अब यही मेरी नियति है
यही मेरा वर्तमान है।
कवि- राजेश कुमार सिन्हा, बान्द्रा(वेस्ट), मुम्बई-507506345031