कर्पूरी ठाकुर न तो अंग्रेजी ‘उन्मूलन’ के पक्षधर थे और न ही ‘सवर्ण’ विरोधी- सुरेंद्र किशोर

कर्पूरी ठाकुर के जन्म दिन (24 जनवरी ) पर
मैं लोहियावादी समाजवादी कार्यकर्ता की हैसियत से 1972-73 में करीब डेढ़ साल तक कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव रहा था। मैं पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास में ही रहता था। किसी व्यक्ति को यदि आप लगातार डेढ़ साल तक रात-दिन देखें तो आप जान जाएंगे कि उसमें कितने गुण और कितने अवगुण हैं। एक पंक्ति में यह कह सकता हूं कि उनके जैसा ईमानदार, विनम्र और संयमी नेता मैंने नहीं देखा। साथ ही, वे योग्य व सुपठित व्यक्ति थे। एक बात और। वे न तो अंग्रेजी के उन्मूलन के पक्ष में थे और न- ही सवर्ण विरोधी थे। हां, वे अंग्रेजी की अनिवार्यता के जरूर खिलाफ थे- सुरेन्द्र किशोर।
यह 1971 की बात है। तब मैं संयुक्त सोशलिस्ट पर्टी की सारण जिला शाखा का कार्यालय सचिव था। एक दिन कर्पूरी ठाकुर छपरा पहुंच गए। नगरपालिका चैक स्थित ऑफिस में नीचे दरी पर वे सो गए थे। जगे तो उन्होंने मुझसे कहा कि ‘‘चूंकि आप तेज और ईमानदार दोनों हैं, इसलिए मैं आपको अपना निजी सचिव बनाना चाहता हूं। क्या आपको मंजूर है?’’ कर्पूरी जी संसोपा के बिहार में शीर्ष नेता थे। मैं उनका प्रशंसक भी था। पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी उनसे मुलाकात होती रहती थी। उनका यह ऑफर सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई, क्योंकि मैंने तब यह तय किया था कि राजनीति में ही सक्रिय रहूंगा, शादी नहीं करूंगा।

खैर, मैंने उनसे कहा कि यह तो मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे बारे में ऐसी राय रखते हैं, किंतु अभी मेरी परीक्षा है। परीक्षा के बाद मैं पटना आकर आपसे मिलूंगा। दरअसल, बिहार की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ छात्रों के आंदोलन में शामिल होने के कारण मैं 1967 में अपनी बीएससी फाइनल परीक्षा नहीं दे सका था। इसलिए फिर से हिस्ट्री ऑनर्स (राजेंद्र कालेज) में नाम लिखा लिया था। 1972 के प्रारंभ में बिहार विधान सभा चुनाव के बाद मैं पटना आया। कर्पूरी जी के यहां गया। उनके आसपास अक्सर भीड़ रहती थी। मुझे देखते ही उन्होंने पूछा, ‘‘आपने क्या तय किया ?’’ मैंने कहा कि ‘‘मैं आपके साथ रहने के लिए आ गया हूं।’’ तब से 1973 के मध्य तक मैं उनके साथ रहा। पर मैं उन्हें बताए बिना एक दिन उनके यहां से निकल गया। कर्पूरी जी ने उसके बाद राजनीति प्रसाद से पूछा,‘‘ क्या मुझसे कोई गलती हो गई जो आपके मित्र मुझे छोड़कर चले गये ?’’ राजनीति ने मुझे फटकारते हुए वह बात बताई। मैंने राजनीति प्रसाद से कहा कि कर्पूरी जी से कोई गलती नहीं हुई। मैं ही अपना काम बदलना चाहता हूं। मैं अब पेशेवर पत्रकारिता करना चाहता हूं।
अब कोई बताए कि कर्पूरी जी सवर्ण विरोधी थे? यदि विरोधी रहते तो मेरे अलावा भी, मुझसे पहले व बाद में भी सवर्णों को अपना निजी सचिव क्यों रखते? हां,लक्ष्मी साहु सबसे अधिक दिनों तक उनके निजी सचिव रहे। 1967-68 की महामाया प्रसाद सिन्हा सरकार ने, जिसमें कर्पूरी जी शिक्षा मंत्री भी थे, अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त की। उसको लेकर कर्पूरी जी का बहुत उपहास किया गया। जबकि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने पर पूरा महामाया मंत्रिमंडल एकमत था। अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने को लेकर संसोपा के शीर्ष नेता डा. राममनोहर लोहिया का विशेष आग्रह था। उन दिनों यह प्रचार हुआ कि चूंकि कर्पूरी ठाकुर खुद अंग्रेजी नहीं जानते, इसलिए उन्होंने अंग्रेजी हटा दी। पर यह प्रचार गलत था। कर्पूरी ठाकुर अंग्रेजी अखबारों के लिए अपना बयान खुद अंग्रेजी में ही लिखा करते थे।मैं गवाह हूं, किसी हेरफेर के बिना ही उनका बयान ज्यों का त्यों छपता था।
अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के पीछे ठोस तर्क थे। तब छात्र अंग्रेजी विषय में मैट्रिक फेल कर जाने के कारण सिपाही में भी बहाल नहीं हो पाते थे। इस कारण से वंचित होने वालों में सभी जातियों व समुदायों के उम्मीदवार होते थे। नौकरी से वंचित होने वालों में अधिकतर गरीब घर के होते थे। जबकि आजाद भारत में किसी सिपाही के लिए व्यावहारिक जीवन में, वह भी बिहार में, अंग्रेजी जानना बिलकुल जरूरी नहीं था। दूसरी बात यह है कि उन दिनों आम तौर से वर पक्ष न्यूनत्तम मैट्रिक पास दुल्हन चाहता था। अंग्रेजी में फेल हो जाने के कारण अच्छे परिवारों की लड़कियों की शादी समतुल्य हैसियत वालों के घरों में नहीं हो पाती थी। किसी घरेलू महिला के जीवन में अंग्रेजी की भला क्या उपयोगिता थी?
याद रहे कि तब अंग्रेजी की सिर्फ अनिवार्यता समाप्त की गयी थी, उसकी पढ़ाई बंद नहीं की गयी थी। पर प्रचार यह हुआ कि अंग्रेजी को ‘विलोपित’ करने के कारण ही शिक्षा का स्तर गिरा। हालांकि विलोपित नहीं हुआ था, सिर्फ अनिवार्यता खत्म हुई थी। केंद्रीय सेवाओं के काॅडर लिस्ट मैंने देखे हैं। 1967 से पहले जितने बिहारी आई.एएस और आईपीएस बनते थे, 1967 के बाद भी उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आई।
बिहार में शिक्षा को बर्बाद करने के अन्य अनेक कारक रहे हैं। प्रो. नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने इस पर कई किताबें लिखी हैं। 1972 में तो तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडेय ने परीक्षा में कदाचार पूरी तरह बंद करवा दिया था। फिर किसने शुरू कराया? पटना हाईकोर्ट के आदेश से सन 1996 में बिहार में मैट्रिक-इंटर की परीक्षाएं कदाचार-शून्य र्हुइं। दोबारा कदाचार किसने शुरू कराया? 1980 में निजी स्कूलों के राजकीयकरण से पहले लगभग सभी शिक्षक मनोयोगपूर्वक पढ़ाते थे। क्या बाद में भी वैसी ही स्थिति रही? ऐसा क्यों हुआ ??
पुनश्चः1977 में कर्पूरी जी जब दोबारा मुख्यमंत्री बने, उससे पहले ही मैंने दैनिक ‘आज’ ज्वाइन कर लिया था। मैं खबरों के लिए मुख्यमंत्री कर्पूरी जी को जब भी फोन करता था, वे तुरंत फोन पर आ जाते थे।

लेखक- सुरेन्द्र किशोर, वरिष्ठ पत्रकार, पटना, बिहार।

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