काशी की तवायफ परंपरा का ऐतिहासिक विवेचन- संगीता मौर्य

प्राचीन परंपरा और शब्दकोषों में तवायफों को गणिका, नगर वधू , वेश्या, पतुरिया, तवायफ, रंडी-मुंडी आदि नामों से अभिहित किया जाता है। गीता श्री ‘वेश्या’ शब्द को ‘वैश्य’ से उत्पन्न मानती हुई कहती हैं-“कुछ विद्वान ‘वेश्या’ शब्द को ‘वैश्य’ शब्द के कारण ही उत्पन्न हुआ मानते हैं। देह का यह व्यवसाय जिसे हम वेश्यावृत्ति कहते हैं, संभवतः व्यापारिक विकास से आया। ऐसा नहीं है कि यह पेशा सिर्फ व्यापार के कारण ही अस्तित्व में आया। हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि इसके कारण यह फला-फूला होगा।”[i] महाकवि मतिराम ने गणिका के स्वरुप को बताते हुए लिखा है-
धन दे जाके संग मैं, रमै पुरुष सब कोई।
ग्रंथन को मति देखिके, गणिका जानहु सोइ।।
भारतीय परम्परा में गणिकाओं का इतिहास लगभग ढाई से तीन हजार साल पुराना है। बौद्ध काल की प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली की कथा से हम सभी परिचित हैं। बौद्ध विहारों में स्त्रियों के प्रतिबंध के बाद भी आम्रपाली की प्रतिभा देखकर बुद्ध ने उन्हें अपने विहार में प्रवेश दिया था । ‘ये कोठेवालियाँ’ में अमृत लाल नागर लिखते हैं – “वेश्या या गणिका का अर्थ स्पष्ट है। जन और गण की पत्नी केवल इस देश के प्राचीन इतिहास से ही नहीं वरन सारी दुनिया में मानव-सभ्यता के पितृसत्तात्मक युग में एक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण संस्था बन गयी। बाइबिल में केडेशोध वेश्याओं का वर्णन आता है। ये लोग मंदिरों से सम्बद्ध थीं; मोआबाइट और असीरियन मंदिरों में भी इनका बड़ा आदर होता। आर्मीनिया देश में पुराने समय में यह आम प्रथा थी कि लोग अपनी बेटियों को देवदासी बना देते थे। प्राचीन बेबिलोनियाँ में इन देवदासियों का रुतबा था। प्राचीन एथेंस और रोम में भी वेश्याओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।.. हमारे देश में सालवती, मथुरा की वसंत सेना तथा वैशाली की नगरवधू अम्बपाली के वृत्तान्त अब तक भारतीय साहित्य में अनेक काव्य, नाटक और कहानी-उपन्यासों की विषय-वस्तु बनकर लोक प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं।”[ii]

अत: स्पष्ट है कि गणिकाओं का इतिहास बहुत पुराना और समृद्ध रहा है। समाज में तवायफों को लेकर पक्ष-विपक्ष की बहुत सी राय मौजूद है। कुछ इन्हें समाज के कलंक या अभिशाप के रूप में देखते हैं। कुछ लोग इसकी उपयोगिता स्वरूप इसे विवाह और परिवार जैसी संस्था के विकल्प के रूप में भी देखते हैं। लेकिन कला के साधक तो इन्हें नृत्य-संगीत आदि कलाओं के विकास के लिए इसे वरदान के रूप में ही चिन्हित करते हैं। इस सन्दर्भ में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का कहना था कि अगर कोठे नहीं होते, तवायफें नहीं होतीं तो आज बिस्मिल्लाह बिस्मिल्लाह नहीं होता। मुजफ्फ़रपुर की तवायफ़ बृजबाला के साथ बिस्मिल्ला खां रियाज करते थे। बिस्मिल्लाह खां यह मानते भी थे कि पक्की गायकी कोठे पर थी। यह गाना ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ इस गाने की धुन बृजबाला ने ही बनाई थी। इस गाने ने बिस्मिल्लाह खां को अमर कर दिया और बृजबाला गुमनाम ही रहीं। हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेमिका इसी परंपरा की बहुत पढ़ी-लिखी और साहित्य में रूचि रखने वाली थीं उनकी बहुत सी रचनाएँ भारतेंदु की मान ली गयीं और मल्लिका का अस्तित्व इतिहास के गर्त में दफ़न हो गया। मैं धन्यवाद देना चाहूँगी डॉ. राजकुमार को जिनके अथक परिश्रम से मल्लिका की रचनाओं का समग्र प्रकाश में आया।
‘ठुमरी’ और ‘दादरा’ की खूबसूरती भी इन्हीं कोठों की देन है। ‘ठुमरी’ की एक बानगी कि ‘हमसे करके हो बहाना सैयां कहवाँ गाईला ना’ तो वही ‘दादरा’ में देखें तो ‘भींगे पसीनवा से अंगिया, बलम तनि बनिया डोला दा ना’। बनारस के इस गायिकी की परम्परा को समृद्ध करने वाली हुस्नाबाई, धनेसरा बाई, रसूलन बाई, सिध्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, जद्दन बाई जो फ़िल्म अभिनेत्री नरगिस की माँ थीं और छप्पन छुरी के नाम से मशहूर जानकी बाई के साथ ही विद्याधरी बाई, मोतीबाई, गौहर जान, काशी बाई आदि इस परम्परा की चमकती नक्षत्र रही हैं। इस सन्दर्भ में अमृत लाल नागर लिखते हैं कि – “उत्तर भारत में तीन नाम किंवदन्तियों की ऊँची-ऊँची मीनारों पर प्रतिष्ठित है ; नर्तकों में महाराज बिंदादीन तथा गायिकाओं में गौहरजान और विद्याधरी के नाम नृत्य-संगीत के प्रेमियों में बड़े ही प्रख्यात हैं।”[iii] हुस्नाबाई का भी बड़ा नाम था उनकी लिखावट बहुत सुंदर थी। उनका पत्र-व्यवहार भारतेंदु से भी होता था। तब के ज़माने में ये तवायफें हमारी शान हुआ करती थीं। जिनको राष्ट्रपदक से सम्मानित भी किया जाता था। ‘ये कोठे वालियाँ’ में अमृत लाल नागर हमारा ध्यान इस ओर ले गए हैं। वह बताते हैं कि- “विद्याधरी की समवर्ती गायिका अंजनीबाई मालवेकर राष्ट्रपति द्वारा सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। उनके बाद की पीढ़ी की बनारस की रसूलन बाई को भी सम्मान प्राप्त हो चुका है। काशी से दूर रहने के कारण विद्याधरी का नाम लोगों की स्मृति से भी ओझल हो गया है। सुप्रसिद्ध लेखक बंधुवर रुद्र काशिकेय ने मुझे बतलाया था कि विद्याधरी से जयदेव के गीत-गोविन्द की रचनाएँ जिसने सुनी हैं वह उन्हें कभी भूल नहीं सकता। विद्याधरी और राजेश्वरी ने गोस्वामी दामोदर लाल जी से ‘कामसूत्र’ पढ़ा था। काशी की एक सुप्रसिद्ध ठुमरी-गायिका बड़ी मोती बाई का नाम आने पर बोलीं, “पुरानों में विद्याधरी, आहा !” काशी में मैंने अनेक से विद्याधरी के संबंध में सुना। विद्याधरी ने अपने समय में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को अपनी गायन कला से प्रभावित कर रस बरसाया था।”[iv]

पहले बड़े-बड़े रईसों की शादियों में महफिलें सजती थीं। ये महफिलें छोटी-छोटी नहीं होती थीं बल्कि कई-कई डेरे की बड़ी महफिल सजती थीं। महफिल में उठने-बैठने सबके सलीके हुआ करते थे कहाँ चप्पल उतारनी है, कैसे बैठना है, कब क्या बोलना है आदि सभी छोटे-बड़े कायदे जानने पड़ते थे। देखा जाय तो इन महफिलों में बाद में मणिपुरी, भरतनाट्यम जैसे सभी शास्त्रीय संगीत देखने को मिलने लगे लेकिन उत्तर-प्रदेश का लोक नृत्य ‘कत्थक’ जो इन महफिलों की शान हुआ करती थी या हम यह भी कह सकते हैं कि ‘कत्थक’ जैसे लोक नृत्य की परम्परा को ये तवायफें ही थाती के रूप में संभाली और समृद्ध की हुई थीं। इस पर प्रकाश डालते हुए वसुधा डालमिया लिखती हैं- “जहाँ बहुत दिनों से तवयाफें नागरिक जीवन के केंद्र में रहती चली आती थीं। सभ्य समाज सिर्फ आनंद के लिए ही नहीं वरन कला, संगीत नृत्य का लुफ्त लेने के साथ-साथ ऐसे आभिजात्य माहौल की खोज में इन तवायफों के पास आता था, जो सौन्दर्य बोधिय दृष्टि से परिष्कृत हो। जो भी तवायफ एक बार सौंदर्य और कला में महारत हासिल कर लेती, उसे हमेशा के लिए सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती। बनारस के महाराज और सत्ताधीशों के सामने उसे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए कहा जाता, साथ ही सभी प्रमुख मंदिरों और पवित्र नदी गंगा की रेत पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में आमंत्रित की जाती।”[v] देखा जाय तो प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन’ की भोली बाई इसी परम्परा की है और उसकी अनुगामिनी बनी सुमन भी इसी बनारस की है।
प्रारंभ के दौर में देखा जाय तो तब यहाँ की तवायफें बदनाम नहीं थीं। आज तवायफों का जो रूप हम देख रहे हैं वह 19वीं सदी के बाद का है। ध्यान देने वाली बात यह है कि बनारस में तवायफों की इस परम्परा की शुरुआत कब से मानी जाय? अपने उपन्यास ‘सेवासदन’ में प्रेमचंद बार-बार यह कहते हैं कि मुस्लिम शासन के बाद तवायफों की यह परम्परा शुरू होती है। इस संबंध में हम कह सकते हैं कि इसका सही समय औपनिवेशिक भारत का है। पहले तवायफों के यहाँ लोग तालीम लेने जाते थे। यहाँ सुर, संगीत और तहजीब में रूचि रखने वाले लोग आते थे। छोटे-बड़े सभी का इन महफिलों में आदर और सम्मान था। बनारस की संगीत परम्परा से हम सभी वाकिफ़ हैं और इस परंपरा का स्रोत दालमंडी ही है। जहाँ न कभी दाल की मंडी थी न ही वेश्याओं की मंडी लगती थी बल्कि यहाँ से संगीत की वह परंपरा विकसित होती है जिसने दुनिया में बड़ा नाम कमाया है।
चौक से नई सड़क के बीच की जिस गली का नाम दालमंडी है दरअसल बनारस के इस गली का नाम यहाँ के ही राज वैद्य ‘हकीम मोहम्मद जाफ़र के नाम पर पड़ा । दालमंडी की उसी गली में जहाँ बाद के दिनों में लोग वहाँ जाने से कतराने लगे उस गली की शोभा पारसी थियेटरकार आगा हश्र काश्मीरी और बिल्मिल्लाह खां साहब का निवास भी वहीं था तो फारसी-उर्दू के मशहूर फनकार मिर्ज़ा ग़ालिब और उर्दू के पहले सॉनेट शायर डॉ.नाजिम जाफरी भी वहीं से संबंध रखते थे।
यह बात इतिहास सम्मत है कि मुगलों के समय में संगीत की परम्परा बहुत समृद्ध थी। मुगल बादशाहों ने संगीत और संगीतकारों का बहुत आदर किया था। लेकिन इस समृद्ध परंपरा में सेंध लगाने का काम भारत में ब्रिटिश उपनिवेश के दिनों में अंग्रेजों ने किया। चूँकि उन्हें न यहाँ के संगीत से मतलब था न यहाँ की परम्परा और संस्कृति से ही यही कारण है कि उन्होंने सारी नाचने वाली को ‘नाच गर्ल’ का नाम दिया। इस संबंध में गरिमा श्रीवास्तव लिखती हैं कि- “1856 में, अवध में तवायफों को मिलने वाली पेंशन दी गई थी। 1857 में तो वे संदेह के घेरे में आ गई थीं, लेकिन 1864 से तो वे अति साधारण देह-श्रमिकों में तब्दील हो गईं। वे स्त्रियाँ जो साहित्य-संस्कृति, कला की वाहिकाएँ बनकर पुराने समय से ही शासन, सत्ता और संस्कृति में सम्मानित हुआ करती थीं, बदले समय में अपनी कलाओं के साथ भरण-पोषण के लिए बाजारों में बैठने लगीं। ब्रिटिश कानूनों ने बेहद दीनावस्था में पहुँचा दिया अब वे ‘सिंगिग एंड डांसिंग गर्ल्स’ बनकर सिविक टैक्स खातों में कर अदा कर्ता थीं।”[vi] अंग्रेज विद्वान प्राण नेविल और फ्रेंचेस्का ऑरसीनी ने इस पर विस्तार से बात की है।
कोठे पर इस गायिकी का रियाज बहुत वर्षों तक किया जाता था तब जाकर गायिकी पक्की होती थी, लेकिन बाद के दिनों में गज़ल का जमाना आया और कोठे की पक्की गायिकी थियेटर और मजेदार बातों में तब्दील हो गयी। इस संबंध में ‘सेवासदन’ की भोली सुमन से कहती है कि- “तुम्हें छ: महीने में आ जाएगा; यहाँ गाने को कौन पूछता है, ध्रुपद और तिल्लाने की जरूरत ही नहीं। बस, चली हुई गज़लों की धूम है। दो-चार ठुमरियाँ और कुछ थियेटर के गाने आ जाएँ और बस, फिर तुम्हीं तुम हो। यहाँ तो अच्छी सूरत और मजेदार बातें चाहिए।”[vii]
इस तरह 16 वीं सदी में महफ़िलों की शुरुआत हुई मानी जा सकती है। गीता श्री भी लिखती हैं कि “मुगलकालीन शासकों के समय में ही यहाँ वेश्यावृत्ति का धंधा शुरू हुआ ।”[viii] तभी तवायफें राजमहलों से निकलकर कोठे पर आ जाती हैं। 16 अगस्त 1781 का दिन था इस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अफसर वारेन हेस्टिंग काशी नरेश महाराजा चेतसिंह को उनके शिवाला में बंदी बना दिया था। भले ही बनारसियों ने उसे खदेड़ कर भगा दिया लेकिन राजा का सब कुछ तबाह हो गया। बनारस में आज भी राजा चेतसिंह के नाम पर चेतगंज है जहाँ के वे राजा थे। अंग्रेजों के आने के बाद यहाँ की राजशाही टूटी और आर्थिक ढाँचा लड़खड़ा गया। राजाओं में आपसी फूट पैदा होने के कारण राजा भी कमजोर हुए और उनकी आर्थिक स्थिति भी कमजोर होती चली गयी। अब वे तवायफों का संरक्षण कर पाने की स्थिति में नहीं रहे। इस कारण तवायफों की जिंदगी में भी बहुत भारी बदलाव आया और उनको अपना अलग रास्ता अख्तियार करना पड़ा । गीता श्री लिखती हैं-“दुनिया की नज़र में वे चाहे जो हो, बुरी, अछूत, गंदी, लेकिन मेरी नजर में वे दैहिक श्रमिक हैं। उनके सामने जब दुनिया ने जब कोई रास्ता नहीं छोड़ा और सड़क व कोठे पर ला खड़ा किया तो वे क्या करतीं।”[ix]
आजादी की लड़ाई में पुरुषों की भूमिका को तो सभी जानते हैं इसके साथ स्त्रियों ने भी इसमें बराबर का सहयोग किया है । यह बात भी कुछ लोग ही जानते हैं लेकिन हम में से बहुत ही कम लोग यह जानते होंगे कि बनारस की तवायफों ने देश की आजादी में अपना योग दिया था। इसका जिक्र इतिहासकारों, ऐतिहासिक रिपोर्ट के साथ ही इस तरह के शोध पत्रों में कहीं-कहीं मिल जाता है लेकिन इसको पाठ्यक्रम का हिस्सा कभी नहीं बनने दिया गया। ‘वी एन एस टुडे ’ में छपी एक खबर के अनुसार- “इतिहास के जानकारों की मानें तो बनारस के दालमंडी में सजने वाली महफिलों में अंग्रेजों को देश से निकालने की रणनीति तय होती थी। मशहूर अभिनेत्री नर्गिस की मां और संजय दत्त की नानी जद्दन बाई ने कोठे पर आए दिन अंग्रेजों के छापे से तंग आकर दालमंडी गली छोड़ दी थी। ठुमरी गायिका राजेश्वरी बाई तो हर महफिल में अंतिम बंदिश ‘भारत कभी न बन सकेला गुलाम…’, गाना नहीं भूलती रहीं। ‘फुलगेंदवा न मारो, मैका लगत जोबनवा में ….’, जैसे गीत से मशहूर रसूलन बाई ने तो आभूषण तभी पहने जब देश आजाद हो गया। इहे ठहियां झुलनी हेरानी हो रामा… कासे मैं पुछू…गीतों को अपने सुरीली आवाज में पिरोने वाली मशहूर तवायफ दुलारी बाई आजादी के समय बनारस के क्रांतिकारियों में जोश भरने का काम करती थी।”[x] इस आवाज में इतनी जोश और क्रांति थी कि वारेन हिस्टिंग्स महिला का रूप धारण करके यहाँ से भाग खड़ा हुआ और इनके हुंकार से ही दुलारी बाई के सबसे खास नन्हकू ने भी कई अंग्रेजों के सिर धड़ से अलग कर दिए थे। कजरी गायिका सुंदरी के प्रेमी बनारस के दाताराम नागर को ब्रितानी सेना से मोर्चा लेने पर कालापानी की सजा हो गई। सुंदरी अपना दुःख इस कजरी के माध्यम से प्रकट करती हुई कहती है-
अरे रामा,नागर नैया जाला कलेपनियाँ रे हरी!
सबकर नैया जाला कासी हो बसेसर रामा,
नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी !”[xi]
आगे वह अपनी विरह वेदना प्रकट करती हुई कहती है-
रहिया में रोवैं तोर संगी आउर साथी रामा,
नारघाट पर रोवै कसबिनियाँ रे हरी !”[xii]
इसका वर्णन शिवप्रसाद मिश्र ‘रूद्र’ ने ‘बहती गंगा’ में किया है- ‘स्वर जीवनी’ सिद्धेश्वरी देवी भी अपनी महफिलों में देश भक्ति के गीत गाती रहीं। तो वहीं बनारस में महात्मा गाँधी की प्रेरणा से ‘तवाएफ सभा’ की स्थापना होती है और हुस्ना बाई उसकी अध्यक्ष नियुक्त होती हैं। नागर जी अपनी पुस्तक ‘ये कोठेवालियाँ’ में जिक्र करते हैं कि विद्याधरी देवी महात्मा गाँधी के साथ मीटिंग में हुई बात को प्रस्तुत करते हैं और विद्याधरी बाई के देश भक्ति संबंधी गीत को भी उद्धृत करते हैं-
भारत न रह सकेगा हरगिज गुलाम खाना,
आजाद होगा होगा आया है वो जमाना।
खूँ खौलने लगा है अब हिन्दुस्तानियों का,
कर देंगे जालिमों के बंद बस जुर्म ढाना।
कौमी तिरंगे झंडे पर जाँ निसार उनकी,
हिन्दू, मसीह, मुस्लिम गाते हैं ये तराना।
परवाह अब किसे है इस जेल वो दमन की ,
एक खेल हो रहा है फाँसी पे झूल जाना।
भारत वतन हमारा भारत के हम हैं बच्चे,
माता के वास्ते है मंजूर सर कटाना।।[xiii]
बनारस की तवायफों ने न सिर्फ संगीत की महफिलों को सजाया बल्कि अंग्रेज सैनिकों के विद्रोह में सड़कों पर भी उतरी। घूंघट की आड़ में उनमें से कई खबरियों का काम करती थी तो कई धनराशि द्वारा इस आंदोलन में अपना सहयोग भी देती थी।

कोरोना काल की वह घटना हम सबको याद ही है जब एक महिला मुस्लिम पत्रकार ने मडुवाडीह की उन वेश्याओं की स्थिति की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया कि किस प्रकार कोरोना काल में धंधा न हो पाने के कारण यहाँ की तवायफें भीख माँगने को मजबूर हैं। बाकायदे घर की दहलीज पर कटोरा लिए हुए उनकी फोटो भी सोशल मीडिया पर तैर रही थी । वास्तव में देखा जाय तो हमारा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं की वेश्याएँ कैसे रहती होंगी? उनको खाने-पीने की भी कमी हो सकती है? वह समाज से अपनी व्यथा किस प्रकार से कह सकती हैं ? यदि कहती भी हैं तो समाज की क्या प्रतिक्रिया होगी ? इस तरह की कितनी सारी बातें जेहन में घूमने लगीं ! इस समाचार ने सचमुच में हमें अपनी ओर आकर्षित किया। इसके बाद मुझे बार-बार नलिनी जमीला याद आने लगीं जिन्होंने अपनी आत्मकथा ‘एक सेक्स वर्कर की आत्मकथा’ जो की किसी सेक्स वर्कर के द्वारा लिखी हुई पहली आत्मकथा है। इसमें नलिनी अपने बीमारी के दिनों को याद करती हुई लिखती हैं कि वह किस प्रकार बीमारी की वजह से धंधा नहीं कर पाती थीं और कोई दूसरा ठिकाना न होने के कारण वे मस्जिद में रहतीं और भीख माँगती थी। कोई भीख तक नहीं देता था । सब मर्दों की गिद्ध दृष्टि उनकी बेटी की ओर ही लगी हुयी थी।
बनारस के मडुवाडीह की इस खबर के बाद हमारा ध्यान बरबस बनारस की इन मंडियों की ओर जाता है। अगर हम गौर करें तो पाएंगे कि एक समय में बनारस की दालमंडी और शिवदासपुर जो की मडुवाडीह का थाना है इसे तवायफों के अड्डे के रूप में भी जाना जाता रहा है। मैं उस घटना को आज भी नहीं भूली हूँ जब मैं और मेरी बहन ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पहले-पहल दाखिला लिया था। हम गाँव से निकलकर पहली बार बनारस जैसे शहर में आये थे, कुछ नहीं जानते थे, न इस शहर के बारे में न ही इसके रहन-सहन के बारे में ही। हमने सुना था कि गोदौलिया में कपड़े सस्ते मिलते हैं, सस्ते कपड़े की चाह में हम गोदौलिया के लिए निकल पड़े। हमें जाना था गोदौलिया लेकिन रास्ता न जानने की वजह से हम चले गये नई सड़क और वहाँ से ‘दालमंडी’।
यह बाज़ार हमारे लिए कुछ नया और अजीब लग रहा था। एक में एक गली और एक में एक दुकानें इस तरह की बहुतायत में कभी भी इतनी हिन्दू और मुस्लिम की एक में एक गुथी हुई एक साथ दुकानें नहीं देखे थे। हमें यह एक नयी और अलग सी दुनिया लग रही थी। फिर भी हम कुछ कपड़े खरीदे और बहुत ख़ुशी-ख़ुशी अपने छात्रावास की ओर चल पड़े। यहाँ अपनी सहपाठिनी जो अभी तक सहेलियाँ नहीं बनी थीं सबको सामान दिखाने लगे और उस जगह के बारे में भी बताया । उस समय उन लोगों ने जो दालमंडी का जो चित्र खिंचा उस रात मारे डर के नींद नहीं आई, हम बहुत ज्यादा डर गए थे। सबने अपनी जानकारी के अनुसार एक और बात जोड़ी कि एक बार बी.एच.यू.के विधि संकाय के छात्रों ने बहुत सी कोठे पर काम करने वाली लड़कियों को छुड़ाया था।
इसकी जानकारी और अधिक पुख्ता हुई सत्य व्यास के ‘बनारस टॉकीज’ को पढ़ते हुए। जब वे शिवदासपुर वाली जगह का वर्णन करते हुए लिखते हैं- “अभी वह गंजा हम तक पहुँचाता; इससे पहले NGO के वोलंटियर ने रेड का सिग्नल दे दिया। छात्रावास के लड़कों की टुकड़ी लड़कियों को बचाने में लग गई। दादा ने उस लड़की को बस में खींच लिया। लड़की डर गयी थी,रो रही थी। बाकी लडकियाँ भी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थी । कुछ तो हाथ छुड़ाकर अँधेरी कोठरियों में गुम हो गईं। कुछ ने झट दरवाजों की कुंडियां लगा दीं। कुछ को वालंटियर्स, जबरदस्ती गाड़ी में डालने में सफल हो गए। अगर किसी तीसरे की नज़र से देखा जाय तो यह बचाव कम हमला ज्यादा लग रहा था। मंडी में सब अपनी-अपनी जान बचा के भाग रहे थे।”[xiv][xv]
यदि हम दालमंडी की भौगोलिक स्थिति पर विचार करें तो पाते हैं कि यह बनारस शहर के बीचो-बीच स्थित है। इसके एक सिरे पर गौतम बुद्ध के उपदेश का स्थल सारनाथ है तो दूसरे सिरे पर ज्ञान वाहिनी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। सबसे आश्चर्य की बात यह कि गोदौलिया के जिस स्थान पर काशी विश्वनाथ का मंदिर है उसी के समीप या उसके गर्भ गृह में भी कह सकते है वही ‘दालमंडी’ स्थित है, जहाँ स्त्रियों के रूप का बाज़ार लगता है। कहा जाय तो आश्चर्य नहीं भी होना चाहिए क्योंकि मंदिरों में देवदासियों की परंपरा बहुत पुरानी है। गीता श्री लिखती हैं –“मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर से खुलने वाली धर्म की खिड़कियाँ सदियों से नारी देह को एक माध्यम मानती रही हैं। नारी देह यानि एक रास्ता जो स्वर्ग की ओर ले जाता है और इसी धर्म की आड़ में या सोहबत में होते रहे हैं देह के सौदे। शायद ये धर्म का असर है या सदियों से मन में बैठा डर, जिसका सौदा होता रहा, वह भी चुप और सौदा करने वाले भी खामोश।”[xvi]

तवायफों की परंपरा पर बात चली है तो अगर इस कड़ी में उमराव जान का नाम न लिया जाय तो यह बात पूरी नहीं हो सकती। उमराव जान लखनऊ की एक मशहूर तवायफ थीं। जिनका शायरी की दुनिया में बड़ा नाम था। उमराव जान की जिंदगी एवं उनके संघर्ष को उद्घाटित करने के लिए अभिनेत्री रेखा ने फिल्म ‘उमराव जान’ में बेहतरीन अभिनय किया बाद में ऐश्वर्या ने भी। मिर्ज़ा हादी रुसवा ने उमराव जान की आप-बीती का पूरा विवरण ‘उमरावजान ‘अदा’ नाम से पंक्तिबद्ध किया है। यह पुस्तक 1899 ई. में आयी। यह कहानी फैजाबाद की अपह्रित छोटी अमीरन से लखनऊ की उमराव जान तक की है। सन 1857 में जब अंग्रेजों ने लखनऊ में तबाही मचा दी थी, सब तरफ लूट-पाट, और सरेआम क़त्ल का दौर चल रहा था। उस समय लखनऊ भी उजड़ गया था यही से राजे-रजवाणों की हुकुमत भी जाती रही थी। ऐसे समय में ही महफिल और मुजरे का दौर भी चला गया। लखनऊ के नूर के साथ ही उमराव की जिंदगी के नूर भी बेनूर हो गए। अपनी जिंदगी के अंतिम दिनों में अपने तन्हा जीवन का सफ़र तय करते हुये उमराव जान वाराणसी में आ गईं। यह उसी दालमंडी में एक कमरा लेकर रहने लगीं जहाँ से इस दालमंडी की गौरवशाली परंपरा की शुरुआत होती है।
अध्ययन की दृष्टि से जब हमारा ध्यान बनारस की वेश्याओं की ओर जाता है तब मुंशी प्रेमचंद के ‘सेवासदन’ की याद जेहन में जरुर आती है क्योंकि बनारस को जानने समझने के साथ ही तवायफों की जिंदगी में आये बदलाव और उस समय जो तमाम तरह के आंदोलन चल रहे थे वह वेश्याओं के जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रहे थे समाज के इस बनते-बिगड़ते रिश्तों ने तवायफों की जिन्दगी कैसे बदली ! इन सारी बातों को जानने समझने के लिए हिंदी में ‘सेवासदन’ भी एक अच्छा दस्तावेज है।

लेखिका- डॉ. संगीता मौर्य, विभागाध्यक्ष: हिंदी विभाग, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश। शिक्षा: बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय।
गवेषणा, सत्राची, कथाक्रम, अपनी माटी, शोध संविद, सबलोग, दलित साहित्य वार्षिकी, निरुप्रह, युद्धरत आम आदमी इत्यादि पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। पुस्तक: ‘स्त्री परिधि के बाहर’ 2021 में प्रकाशित तथा अनेक पुस्तकों में अध्याय लेखन।
* सन्दर्भ :
[i] औरत की बोली- गीता श्री, सामायिक प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-16
[ii] ये कोठेवालियाँ- अमृतलाल नागर,लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, संस्करण-2016 पृष्ठ संख्या- 54
[iii] ये कोठेवालियाँ- अमृतलाल नागर,लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, संस्करण-2016 पृष्ठ-140
[iv] वही, पृष्ठ संख्या-145
[v सेवासदन, अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका 2005- वसुधा डालमिया, पृष्ठ संख्या- 9-10
[vi] सेवासदन: हुस्न का बाज़ार या सेवा का सदन- गरिमा श्रीवास्तव, तद्भव- संपादक अखिलेश, अंक-7 पृष्ठ-10
[vii] सेवासदन-मुंशी प्रेमचन्द, साधना पॉकेट बुक्स दिल्ली, पृष्ठ संख्या-40
[viii] औरत की बोली- गीता श्री, सामायिक प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या- 175
[ix] वही, पृष्ठ संख्या-14
[x] https://vnstoday.com/city-brides-of-kashi-contribute-to…/
[xi] बहती गंगा- शिव प्रसाद मिश्र ‘रूद्र’ पृष्ठ संख्या- 32
[xii] वही, पृष्ठ संख्या-33
[xiii] ये कोठेवालियाँ- अमृतलाल नागर,लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, संस्करण-2016 पृष्ठ-145
[xiv] बनारस टाकिज- सत्य व्यास, हिन्द युग्म, नोयडा उत्तर-प्रदेश, पृष्ठ संख्या-112
[xvi] औरत की बोली- गीता श्री, सामायिक प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या-52
I loved your blog article.Much thanks again. Great.
Enjoyed every bit of your article. Awesome.
An interesting discussion is worth comment. I do believe that you need to write more about this subject matter, it may not be a taboo subject but usually folks don’t discuss these subjects. To the next! Cheers!!
Great article. Want more.
I am so grateful for your blog post.Really thank you! Great.
I really enjoy the article.Really thank you! Want more.
It’s difficult to find experienced people in this particular subject, but you sound like you know what you’re talking about! Thanks
Thanks , I’ve just been looking for information approximately this topicfor a while and yours is the greatest I have came upon so far.However, what Records in Information Management regards to the bottom line?Are you certain about the supply?
An instance of a cashable bonus is if you receive 100 upto $200 on your deposit.
Appreciate you sharing, great blog article.Really looking forward to read more. Much obliged.
Great blog. Will read on…
Thanks again for the article post.Really thank you! Will read on…
I loved your blog post.Much thanks again. Really Cool.
Very neat blog article.Thanks Again. Keep writing.
I think this is a real great blog post.Really looking forward to read more. Keep writing.
I cannot thank you enough for the blog article.Really thank you! Awesome.
I cannot thank you enough for the blog article.Really thank you! Really Great.
whoah this blog is fantastic i love reading your posts. Keep up the good work! You know, a lot of people are hunting around for this info, you could aid them greatly.
Major thankies for the article post.Really thank you! Really Great.
I was so amazed because of your blog. Thank anyone so much.
Thank you for your post.Much thanks again. Much obliged.
Very good article post.Thanks Again. Want more.
Really informative article.Much thanks again. Awesome.
Im obliged for the post.Thanks Again. Great.
Thank anyone so much for enabling myself know what My spouse and i didn’t know. I look forward to working with you.
You can certainly see your expertise in the article you write.The sector hopes for even more passionate writers such as you who aren’t afraid tomention how they believe. Always follow your heart.
Very nice post. I just stumbled upon your blog and wished to say that I’ve truly enjoyed surfing around your blog posts. After all I’ll be subscribing to your rss feed and I hope you write again soon!
I cannot thank you enough for the article.Really thank you! Really Great.
I value the article.Much thanks again. Awesome.
Thank you for your article post.Really looking forward to read more. Awesome.
Really informative blog article.Really thank you!
Really informative article post.
Actually when someone doesn’t know then its up to other people that they willassist, so here it occurs.
wow, awesome blog post.Thanks Again. Much obliged.
Enjoyed every bit of your post.Much thanks again. Keep writing.
This is one awesome article.Much thanks again. Fantastic.
I cannot thank you enough for the post.Really thank you! Really Cool.
It is really a nice and helpful piece of info. I am satisfied that you just shared this useful information with us.Please stay us informed like this. Thanks for sharing.
Thanks for the article.Thanks Again. Fantastic.
Very good blog post.Really looking forward to read more. Awesome.
Thank you, I’ve recently been searching for information about this topic for ages and yours is the greatest I have found out so far. But, what about the bottom line? Are you sure in regards to the source?