सर्वेश सिंह की कविता- “जेएनयू का शोक”

उसके कत्थई ईंटों की मिट्टी
कहते हैं कि गुरुग्राम की थी
जहां गुरु द्रोण का आश्रम था
आँचल में अरावली की झाड़ियाँ थीं
जहां राय पिथौरा ने
शब्दबेधी धनुर्विद्या सीखी थी
जब जेएनयू बन रहा था
तो कहते हैं कि
तक्षकों का एक महाभारतकालीन कुनबा
पुस्तकालय के नीचे खुशी खुशी दफन हो गया
ताकि नौनिहालों की आंखें रोशन हों
पर भारत की संसद ने इसे इतिहास से अलग कर दिया
नालन्दा, तक्षशिला को तर्क कर
एक ऐसे व्यक्ति से इसका नाम जोड़ा
जो सिर्फ प्रधानमंत्री का बाप था
किसी फकीर ने कभी कहा था
कि देश और इतिहास के इसी फांक से घुसकर
जेएनयू में कामरेड आए
जो सांपों से मिलते जुलते थे
इन कामरेडों के दिमाग में एक किताब थी
जिसे वे मैनिफेस्टो जैसा कुछ कहते थे
जिसमें कुछ अटपटी बातें थीं
जैसे कि एक तरह का धर्म अफीम है
जबकि दूसरी तरह का धर्म सिगरेट है
जिसे सुविधानुसार जब कभी सुलगाया जा सकता है
उस किताब के ज्ञान का सारांश कुल इतना था कि
दुनिया में सब कुछ
मात्र छह इंच का होना चाहिए
और ऐसी दुनिया बनाने के लिए
सत्ता पर कब्जा चाहिए
और सत्ता बंदूक की नली से निकलती है
और इसी कारण दुनिया की
तमाम किताबों में
वे सारे कामरेड
बस बारूद खोजने लगे
वे जैसे कि डिग्रियां नही
बल्कि बंदूक लेकर वहां से निकलने लगे
और धीरे धीरे फैलने लगे
वे नमस्कार नही करते थे
बल्कि लाल सलाम बोलते थे
क्योंकि खून उनका पेशा था
और खून का रंग लाल था
और सलाम उनकी सजिशों से बेखबर था
उन्होंने इस देश के इतिहास को कल्पना कहा
और कल्पना को अवैज्ञानिक बताया
उन्होंने मंदिर को गल्प कहा
और मस्जिद में आग रख दी
लगाने को संस्कृतियों में
उनकी गंगा जमुनी तहजीब में
न गंगा थी न जमुना
बल्कि सिर्फ एक किला था
जिसका रंग लाल था
और जो नर मुंडों पर बना था
और इस तरह उन्होंने
एक बड़े विश्वविद्यालय को
बंदूक की नली में
गोली की तरह भरा
और धाँय से दाग दिया
उसी देश पर
जिसकी मिट्टी में वह अटका था
इस तरह एक बेतुकी किताब
और बेमतलब सी क्रांति के भ्रम में
वे जेएनयू को नष्ट करते रहे
कर रहे हैं
कत्थई ईंटें पिघल रही हैं
झाड़ियाँ रो रही हैं
पर उनकी अपनी ढपली का शोर
बढ़ता जा रहा है
किसी पैगम्बर ने कहा था कभी
कि ईश्वर उन्हें माफ करे
कि वे नही जानते
कि वे क्या कर रहे हैं….
कवि डॉ सर्वेश सिंह बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं।
