भक्ति की भावधारा- भरत प्रसाद

“भक्ति” ऐसी अमिट अंतर्भावना है,जिसकी मीमांसा दर मीमांसा सदियों से होती रही।प्रेम,करूणा,श्रद्धा और क्षमा की तरह इसे महाभाव का दर्जा हासिल है। भाव न पुरने होते हैं, नये। वे युगीन परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार अपना रंग-ढंग और तेवर बदल लेते हैं। इस तरह भाव अक्षय हैं, सीमातीत और अमर भी। यहां तक कि व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी वे जीवित रह जाते हैं। “भक्ति” अपनी अंतर्शक्ति में इतनी चमत्कारिक उर्जा की है,जिसने मध्यकालीन कवियों को स्वर्णिम शिखर पर पहुंचा दिया। यह लेख एक नये सिरे से उसी भक्ति भावना की युगानुकूल खोजबीन है।
"भक्ति" शब्द जो कि मध्यकाल में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ, आज पुनर्परिभाषित होने का आह्वान कर रहा है। रामचन्द्र शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध निबंध-"श्रद्धा और भक्ति" में एक कुशल मनोवैज्ञानिक की भांति भक्ति की मंत्रमय परिभाषा की है-"श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।... भक्ति का स्थान जहाँ मानव हृदय है, वहीं श्रद्धा और प्रेम के संयोग से उसका प्रादुर्भाव होता है। (चिंतामणि, भाग-01)
भक्ति के संदर्भ में शुक्ल जी की यह परिभाषा अकाट्य, अमिट, अप्रश्नेय की हैसियत हासिल कर चुकी है, और जब जब भक्ति की बात उठती है, शुक्ल जी इस लकीरी परिभाषा के साथ आगे खड़े हो जाते हैं। परन्तु अब भक्ति की निर्मिति में नये आयाम जोड़ने, और छिपी हुई संभावनाओं की खोज करने, उसकी प्रकृति में और बारीकी से उतरने का वक्त आ गया है। शुक्ल जी परिभाषा के करीब 100 साल पूरे होने जा रहे हैं, इस अर्थ में भी भक्ति की पुनर्परिभाषा अनिवार्य है। श्रद्धा और प्रेम के अतिरिक्त भक्ति में अहम् भूमिका विश्वास, समर्पण, एकनिष्ठता और अहंशून्यता की है। महत्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं कि भक्ति किन किन तत्वों से निर्मित होती है, बल्कि मायने यह भी रखता है- कौन कौन से मानवीय दोष भक्ति के विनाशक तत्व हैं। भक्ति के लिए जहरीले तत्व हैं- संदेह, निंदा, भौतिक आसक्ति, स्वार्थ, ईर्ष्या और अकरुणा। श्रद्धा और प्रेम के अतिरिक्त जिन अन्य निर्माणक भावतत्वों का उल्लेख हुआ,और जिन विनाशकारी तत्वों की चर्चा हुई,आइये चलते हैं, भक्ति में उनकी निर्णायक भूमिका का पता लगाने।

विश्वास एक नैसर्गिक मानवीय स्वभाव है, जो लगभग प्रत्येक मनुष्य में जन्मजात होता है, और जीवनपर्यंत टूटता, पराजित होता, अपमानित और लांक्षित होता हुआ भी, मनुष्य में अंत तक कायम रहता है। हृदय की अश्रुभूमि में विराजमान रहने का कारण भी है। विश्वास हमारे सांसों की शक्ति है, धड़कनों की दवा है, सहज प्रसन्नता की अनिवार्य औषधि है और शरीर को सकारात्मक बनाए रखने वाली अपरिहार्य भाव उर्जा है। यही विश्वास जब असाधारण, अलौकिक, विवेकमय और असीम हो जाता है, तो भक्तिभावना में नींव की हैसियत हासिल करता है, जिसके आधार पर खड़ा भक्त का न केवल हृदय बल्कि मन, बुद्धि, आत्मा, चेतना सब भक्ति की अद्वितीयता से ओतप्रोत हो जाते हैं। विश्वास आखिर क्यों? मनुष्य तो मूलतः संदेहप्रेमी है। क्षण क्षण अविश्वास को हृदय से लगाता है, फिर विश्वास स्थायी तौर पर हो भी कैसे सकता है?
इसमें क्या दो मत कि विश्वास का स्थायित्व होना एक अविश्वसनीय आश्चर्य ही है, परन्तु अत्यंत विशिष्ट मनोदशा में, हृदयावस्था में वह स्थायी भी बन जाता है। विश्वास के स्थायित्व की एक मात्र शर्त है, भक्ति के आधार की महानता, निर्दोषता और गुणात्मक उत्कृष्टता। ये तीन विशेषताएं मनुष्य में अत्यंत दुर्लभ हैं, इसीलिए प्रायः जीते जी बड़ा से बड़ा मनुष्य भी भक्ति का स्थायी आधार नहीं बन पाता, हां उसकी जैसै ही मृत्यु हुई, धीरे-धीरे अपनी प्रसिद्धि के दम पर दुर्गुणों के प्रचार को दबाने में, मिटाने में सफल होता हुआ भक्तों की कतार हासिल करने की योग्यता हासिल कर लेता है। अभी तक अर्थात पूर्व वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक भक्ति के जितने भी आधार बने, सभी अशरीरी, दिवंगत, मृत्यु के उपरांत। इस खास संदर्भ में विवेकानंद का विचार समझने में बहुत सहायता करता है-” संसार के उस पार की किसी वस्तु की आवश्यकता अनुभव करने लगे,ऐसी वस्तु की जो इन समस्त जड़ या भौतिक शक्तियों से परे है,उनसे ऊपर है, तभी हम भक्त बनते हैं।” (भाषण-भक्ति के लिए प्रारंभिक सोपान, विवेकानंद साहित्य संचयन)
रहस्य स्पष्ट है, भक्ति तभी जन्म लेती है, जब भक्ति का केन्द्र अलौकिक, ईश्वरीय, दैवीय सत्ता, महत्ता, प्रभुता हासिल कर ले। ऐसी दशा में भक्ति एक कठिन, असाध्य और अव्यावहारिक पद्धति बन जाती है। क्योंकि भक्त में अखंड, अपरिमित, प्रगाढ़ विश्वास अक्सर तभी उत्पन्न होता है, जब भक्ति का आधार अदृश्य हो जाय, अलौकिक सत्ता हासिल कर ले, अप्रश्नेय हो जाय। ऐसे अंधे विश्वास पर टिकी हुई भक्ति भी किस काम की? यह भक्ति नहीं, अंधी श्रद्धा है, जो भक्त को आंखें नहीं खोलने देती, बल्कि सामयिक मनुष्य में भी अंधभक्ति का घातक प्रचार करती है।इसीलिए भक्ति का स्रोत जितना ही श्रेष्ठ, मानवीय सद्गुणों से सम्पन्न और महिमापूर्ण माना जाता है, भक्ति से उत्पन्न परिणाम उतना ही शुभ, मंगलकारी और मनःविकासक होता है। अतः अनिवार्य बस इतना नहीं कि भक्ति के लिए विश्वास अपरिहार्य है, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक, जनहितकारी भक्ति के लिए श्रेष्ठतम मानवीय सद्गुणों की प्रेरणा से उत्पन्न विश्वास, जो भक्त के हृदय को अंधमय नहीं, विवेक सम्पन्न कर दे, अधिक अनिवार्य है।
भक्ति चूंकि मिस्रित महाभाव है, इसीलिए भक्ति की तैयारी भी कुछ दुर्लभ गुणों का आहृवान करके करनी पड़ती है। इन दुर्लभ गुणों में से एक है- समर्पण। दिखने में जितना ही छोटा, अपनी सघनता और बनावट में उतना ही जटिल और बहुपरतीय। विश्वास की भांति समर्पण भी अलौकिकता का आग्रही होता है। वैसे जहाँ श्रद्धा होगी, वहाँ समर्पण छाया की तरह चला आएगा। समर्पण परिणाम है, प्रेम, श्रद्धा और विश्वास तीनों का। कहा जा सकता है। प्रेम, श्रद्धा और विश्वास के समन्वय से उत्पन्न समर्पण अद्भुत और असाधारण गहराई का होगा,बल्कि अपराजेय भी। समर्पण दो तरह का होता है। एक व्यक्तिगत और दूसरा सार्वजनिक। व्यक्तिगत समर्पण उसके प्रति जन्म लेता है, जिसमें हमारी आस्था होती है,सावर्जनिक समर्पण उसके प्रति होता है, जिसमें समाज की, समुदाय की और समूह की आस्था होती है। जैसे माता-पिता या गुरु के प्रति समर्पण व्यक्तिगत है, जबकि राम, कृष्ण, बुद्ध या महावीर के प्रति समर्पण सार्वजनिक।यह अहम् सवाल है, यदि राम, कृष्ण की महत्ता, ईश्वरीयता समाज ने, करोड़ों मनुष्यों ने स्थापित न कर दी होती तो तुलसीदास या सूरदास उनके भक्त बनते। कई बार भक्तिभाव उत्पन्न ही होता है, भक्ति लायक व्यक्तित्व की सार्वजनिक हैसियत के कारण। यह अवश्य है, उसमें भक्त का अपना चिंतन, मनन, विश्वास और रुचि भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। भक्ति में समर्पण की भूमिका बस इतनी ही है, कि वह भक्ति को और गहरा, स्थायी एवं अद्वितीय बना देता है। समर्पण जैसे ही भक्त में खिल गया, उसके व्यक्तित्व को आभामय कर देता है। किन्तु केवल श्रद्धा और अतिशय प्रेम में किया गया समर्पण घातक है, आत्मसंहारक भी। यहाँ भी अन्तर्दृष्टि का जाग्रत रहना, और सहज विवेक का सक्रिय रहना निर्दोष समर्पण के लिए अनिवार्य है।
सांसारिक मनुष्यों का समर्पण प्रायः स्वार्थ प्रेरित होता है। इसलिए अस्थायी। ऐसे मनुष्य का स्वार्थ जैसे ही बाधित हुआ,प्रयोजन जैसे ही समाप्त हुआ,समर्पण धुंआ हो जाता है। इसीलिए श्रेष्ठ समर्पण के लिए न केवल श्रद्धेय का उत्कृष्ट होना अनिवार्य है, बल्कि भक्त भी गुणसम्पन्न होना शर्त की तरह है। चूंकि भक्त पहले एक सामान्य व्यक्ति रह चुका है, इसलिए सामान्य जीवन की दशाओं में जो अंधकारी दोष जड़ जमा लिए हैं, उनको निष्क्रिय करना,कमजोर करना बेहद जरूरी है।यदि भक्ति में बहते हुए हृदय के दौरान उन विषैले दोषों ने पुनः सिर उठा लिया,पुनः भक्त के व्यक्तित्व पर हावी होने लगे,उसकी आत्मा को विचलित और नियंत्रित करने लगे,तो भक्त कयी घातक मुखौटे धारण कर लेता है। उससे न भक्ति सधती है, न समर्पण और न ही प्रेम। भीतर भीतर अपने स्वार्थों और आनंदकारी वासनाओं का गुलाम वह भक्त, भक्ति के नाम पर कलंक सिद्ध होता है। उसे बखूबी पता है, कि वह स्वयं को धोखा दे रहा,परन्तु सार्वजनिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं करेगा, और उद्दाम आत्मा की अलौकिक सुगंध से शून्य उसका अंधकारी व्यक्तित्व समाज में भी सड़न पैदा कर देगा।
जिसके प्रति भक्ति चित्त में सुवासित है, उसके विरुद्ध संदेह करना निषिद्ध है। क्योंकि संदेह एक कांटा है,जो भक्तिमय हृदय में चुभ गया, तो निकल जाने के बावजूद उसका कुदर्द जल्दी जाता ही नहीं। वैसे यह भी एक अजीब शर्त ठहरी, क्योंकि संदेह तो उर्वर बुद्धि का अनिवार्य स्वभाव है। यह सत्य है -भक्ति की गहराई के अनुपात में संदेह की संभावना अल्प से अल्पतम होती जाती है। अर्थात भक्तिभावना यदि प्रबल, उद्दाम और आवेगमय है, तो संदेह तिनके से भी मामूली अस्तित्व की भांति विलुप्त हो जाता है। हां, यदि भक्ति के क्षणों में यह चिंगारित हो गया, तो न केवल आराध्य का हृदय में बसा हुआ शिखरत्व जमींदोज़ कर देता है,बल्कि खुद साधक का भी व्यक्तित्व घटकर बौना हो रहता है। निंदा, भौतिक आसक्ति, स्वार्थ और ईर्ष्या कितनी घातक भूमिका निभाते हैं भक्ति के संदर्भ में, आइए इसकी पड़ताल करें। गीता में श्रीकृष्ण ने भक्ति की मूलभूत शर्तों से पर्दा उठाया है, कहते हैं-"भक्त वह है,जो द्वेष रहित हो, दयालु हो, सुख दुख में अविचलित रहे, बाहर भीतर से शुद्ध, सर्वारंभ परित्यागी हो, चिंता और शोक से मुक्त हो, कामना रहित हो, शत्रु मित्र, मान अपमान तथा अस्तुति- निंदा और सफलता, असफलता में समभाव रखने वाला हो, मननशील हो, और हर परिस्थिति में खुश रहने का स्वभाव बनाए रखे।" (गीता-भक्तियोग, 12 वां अध्याय) अदृष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च, निर्ममो निरहंकार: समदुःखसुखः क्षमी)
जिस तरह समर्पण संदेहमुक्त एकनिष्ठ भक्ति का परिणाम है, वैसे ही करुणा । वैसे तो करुणा परदुख के प्रति उत्पन्न सहानुभूति का परिणाम है,परन्तु भक्ति की अवस्था में भी इसके अस्तित्व को विमल स्वरूप में खिला हुआ देखा जा सकता है। करुणा प्रायः अपने से बराबर के प्रति, असहाय के प्रति या संकट से घिरे हुए के प्रति उत्पन्न होती है। परन्तु करुणा के एक सूक्ष्म स्वरूप भक्ति की अवस्था में भी विकसित रहता है। वह है, मानवमात्र के प्रति, जीवों के प्रति,सृष्टि के प्रति और अपने आसपास के दुर्बल, दोषपूर्ण, अज्ञानी मनुष्यों के प्रति भी। सच कहिए तो करुणा भावनाशील मनुष्य का नैसर्गिक गुण है, किन्तु यह तब सर्वाधिक विकसित होता है, जब प्रेम व्यक्तिगत और वासनात्मक न रहकर शेष जगत के प्रति हो जाता है, जब हमारे प्रेम के आयतन में ज्ञानी,अज्ञानी, दमित, उपेक्षित, सम्पन्न, विपन्न, प्रसिद्ध, गुमनाम, अपने,पराए सबके प्रति एक अहैतुक प्रेम जन्म ले लेता है। भक्ति की दशा में आश्चर्यजनक रूप से प्रेम का ऐसा ही स्वरूप विकसित होता है। फिर तो बहुत स्वाभाविक है, प्रेममय भक्ति की ऐसी दशा में परम कारुणिक हृदय भीतर जन्म ले ले। एक भक्त के लिए मुश्किल यह नहीं कि वह उन्नत मानवीय सद्गुणों में अपने व्यक्तित्व को ढाल पाया या नहीं, बल्कि मुश्किल यह है कि दिनरात कभी बुद्धि, कभी मन,कभी आकांक्षा ,कभी इन्द्रियों के बहाने शरीर में क्षण क्षण प्रवेश करने को तत्पर नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचानने, रोकने और उन्हें मात देने में सफल हुआ है या नहीं। भक्ति के मूर्धन्य शास्त्रियों ने भक्ति के महत्व और भक्त के व्यक्तित्व की परतों का आदर्शवादी अंदाज़ में खुलासा तो खूब किया है, परन्तु प्रामाणिक और वैज्ञानिक भक्ति के लिए किन नकारात्मक प्रवृत्तियों, दुर्गुणों और मानवीय नीचताओं से सावधान रहना चाहिए, इसकी पड़ताल कम दिखाई देती है। नारद ने "भक्तिसूत्र" ग्रंथ में इसकी उद्दाम भावमय परिभाषा की है-" सा त्वस्मिन् परमप्रेमा रूपा, अमृतस्वरूपा च।"
सारांश यह कि भक्ति परमप्रेमरूपा और अमृतस्वरूपा है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है। धार्मिक अर्थ में भक्ति को मोक्षदायिनी भी कहा गया है। भक्त भी 04 तरह के माने गये हैं- बद्ध, मुमुक्षु, केवल और मुक्त। जाहिर है मुक्त मानव ही भक्ति की सिद्धि का योग्यतम अधिकारी है, शेष यदि भक्ति की दिशा में यात्रा करते हैं, तो भक्ति का शिखर छूना उनके लिए असंभव है। संसार में जीते हुए, संसारमुक्त हृदय से भक्ति संभव करना कितना अंतर्विरोध पूर्ण है, यह कोई भक्त की आंतरिक दशा को बूझकर ही जान सकता है। दो मत नहीं, कि अपने स्थूल और सूक्ष्म, बाहरी और आंतरिक मोहक और घातक पतनगामी मनोवृत्तियों से मुक्त होकर या उन्हें निष्क्रिय करके ही भक्त, भक्ति की चरमदशा को हासिल कर सकता है।
यकीनन यह भक्ति जितना भीतरी रूपांतरण नहीं, उससे कहीं अधिक बाह्य व्यक्तित्व और सांसारिक जीवन का सुगठन है।इसीलिये तथाकथित भक्तों की संख्या तो बेहिसाब बढ़ जाती है, परन्तु कबीर के शब्दों में कहें तो-"तेरा जन एकाध है कोई" की हकीकत ही सामने आती है। जहां ईर्ष्या का कंटीला खेल जारी है, जहाँ अहंकार बात बात में फुंफकारता है, जहाँ प्रतिस्पर्धा हर क्षण मष्तिष्क को मथती रहती है,जहाँ मैं बड़ा कि तू निरंतर मचा रहता है,वहाँ भक्ति के लिए स्थान कहाँ? भक्त तो वह है, जो शरीर में होकर भी,शरीर की शर्तों से मुक्त है, जो भौतिकता से निर्मित होकर भी भौतिक आकर्षणों का गुलाम नहीं है, जो एक आकार में होकर भी निराकारपन को सांस दर सांस में जीता है।ऐसे भक्त के लिए जन्म और मृत्यु भी एक तरंग के उठने गिरने का रूपक मात्र है।उस भक्त के लिए कुछ भी पराया या गैर नहीं, साथ ही उसके लिए संसार में कुछ भी अपना नहीं। यहां तक कि शरीर भी किसी और ही सत्ता की धरोहर है। गीतोपदेश चाहे जितना लुभावना लगे,परन्तु इसकी व्यावहारिक जटिलताएं और अतिशयोक्तिपूर्ण शर्तें भी हैं। इन आदर्शवादी शर्तों से बंधकर भक्ति की मनोयात्रा करने वाला तो खुद एक अलौकिक पुरुष हो जाएगा।
ध्यान देने योग्य है,कि भारतवर्ष पूर्व वैदिक काल से भक्ति की प्रबल संभावना लिए दिए जागने वाला देश रहा है,न किन्तु जागृति की यह तरंग आंतरिक है, भावात्मक है,चेतनागत है। निश्चय ही भारत की इस अद्भुत शक्ति ने पूरे विश्व की आंतरिक जड़ता को आंदोलित किया।स्वयं की हकीकत को ठीक ठीक जानने और अपने अक्स को ठीक ठीक पहचानने की असाधारण भारतीय पद्धति भले ही धार्मिक साये तले विकसित हुई हो, फिर भी मनोक्रांति के क्षेत्र में भारतवर्ष की उपलब्धियां ऐतिहासिक महत्व की हैं। भक्तिमार्ग का प्रमुख सम्प्रदाय भागवत धर्म 1400 ई.पू. प्राचीन माना जाता है। आश्चर्य तो तब उठता है, जब इसके भी पहले के ग्रंथ ऋग्वेद के वरुणसूक्त तथा अन्य ऋचाओं में भी भक्ति की कल्पना का आभास मिलता है। एक और तथ्य ध्यान देने योग्य है कि काव्यशास्त्री मम्मट ने अपनी कृति "काव्यप्रकाश" में देव विषयक रति-अर्थात भक्ति को स्वतंत्र स्थायी भाव कहा है।कन्हैयालाल पोद्दार ने भक्ति को केवल भाव न कहकर रस भी माना है।संस्कृत में एक ग्रंथ ऐसा भी है, जिसमें भक्ति की शास्त्रीय मीमांसा उपलब्ध होती है,वह है- रूपगोस्वामी विरचित "हरिभक्तिरसामृत सिंधु" जो कि बल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख सैद्धांतिक ग्रंथ है। वैष्णव आचार्यों द्वारा रतिभाव के 05 भेद और उतने ही रस माने गये हैं- १.शांति, २. प्रीति ३. सख्य ४.वात्सल्य ५. माधुर्य।
आचार्यों द्वारा सघन चिंतन के बाद यह सिद्ध हुआ कि जब भक्त में इन 05 स्थायी भावों का विकास होता है, तब इनमें से 05 भक्तिप्रेरक रस उत्पन्न होते हैं, जो कि भक्ति की गहनता को और तीव्र, मूलगामी एवं प्रखर करते हैं। यह सर्वज्ञात है, कि भक्ति आंदोलन में दो कालजयी धाराएं वातावरण में निनादित हुईं-एक निर्गुण भक्ति और दूसरी सगुण भक्ति धारा। इन दोनों धाराओं के कवियों ने प्रेमलक्षणा भक्ति को अकुंठ हृदय से स्वीकार किया। भारतीय काव्यशास्त्री भरतमुनि ने भक्ति को शांतरस के अंतर्गत माना है।मानसिक तौर पर दर्पण की भांति मौजूद यह शांतरस एक प्रकार से निष्क्रिय रस है,जो कि सारी भावनाओं को परिष्कृत करके,उनमें एक अद्वितीय पारदर्शिता ला देता है।शांति भूमिका है, चित्त की साधना की।
भक्तिकाल में भक्तिभावना का आवेग ऐसा समुद्रवत था कि जिसने सदियों में भेदों, प्रभेदों, वर्गों, उपवर्गों में बंटकर, कटकर, हटकर जीते , मरते चले आ रहे भारतीय समाज की सीमाओं को मिटा दिया। मध्यकाल म़ें विकसित हुई यह भक्ति इस देश के इतिहास में पहला सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन है, जैसा फिर कभी संभव न हुआ। राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक क्रांति से भी बड़ी है, सामाजिक क्रांति, सांस्कृतिक परिवर्तन। क्योंकि यह विषमता के बाहरी ढांचे को गिराती ही है, मनुष्य की आंतरिक जड़ताओं को उखाड़ फेंकने का संकल्प भी देती है।
ईश्वर है या नहीं, परमात्मा कहीं मौजूद है या नहीं, ब्रह्म का अस्तित्व सचमुच है या कोरी कल्पना का चमत्कार मात्र है। यह सवाल अभी तक अनुत्तरित हैं। आज नये युग में इन अदृश्य सत्ताओं के अस्तित्व को स्वीकार करना बालू में नाव चलाने या पत्थर से पानी निकालने जैसा है।
इस भक्तिभावना से सूरदास को कृष्ण भले ही न मिले हों, मीराबाई भले ही प्रेमी के लिए तड़पती रह गयी हों, तुलसीदास को श्रीराम भले ही मात्र सपने में मिले हों। परन्तु खुद भक्त कवियों के व्यक्तित्व में क्रांतिकारी रूपांतरण हुआ, यही रूपांतरण ही वह रहस्य है, जिसने हिन्दी कविता में एक बेमिसाल स्वर्णयुग को खड़ा कर दिया। भक्त कवियों की आंतरिक संरचना में मनुष्यता की आयी हुई यह अपूर्व बाढ़, उनके भीतर से निकली हुई वाणी को सार्थक कर गयी, चमक दे गयी, कालभेदी सिद्ध कर गयी। निश्चय ही जब कोई सांसारिक हदबंदियों से ऊपर उठता है, जब खुद को क्षुद्र अहंकार से मुक्त कर लेता है, जब उसकी निगाहें अपने, पराए का भेद भूल जाती हैं, जब जड़ में चेतन और चेतन में जड़ की कीमत खोज लेता है, तो व्यक्तित्व में अपूर्व भावनाओं का ऐसा ज्वार, ऐसी बाढ़ पैदा होती है, जो भक्त के समूचे अंतर्वाह्य व्यक्तित्व को मौलिक और अभिनव मनुष्यता के सांचे में ढाल देती है। ऐसे क्रांतिकारी विवेक के सांचे में तब्दील भक्त कवि जो भी रचता है, या गाता है, वह सृजन के लिए सदियों तक मिसाल बना रहता है।
लेखक- प्रोफेसर भरत प्रसाद, हिन्दी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग-793022, मेघालय, मो. 09774125265
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