उत्तर-मानववाद की आहट- प्रमोद रंजन

कोविड महामारी के बाद से दुनिया के काम-काज के तरीकों में बुनियादी बदलाव आ रहा है। ये परिवर्तन कुछ सेवाओं के ऑनलाइन हो जाने तक ही सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि यह दौर मानव-जीवन के हर क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव लेकर आएगा।
न सिर्फ मनुष्य और मनुष्य के बीच के रिश्ते बदल रहे हैं, बल्कि मनुष्य और प्रकृति के बीच, मनुष्य और अन्य जीवों के बीच, मनुष्य और मशीन के बीच के संबंध भी पुर्नव्याख्यित हो रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये परिवर्तन कोविड के दौरान ही शुरू हुए। इनकी पृष्ठभूमि औद्योगिक-क्रांति (1760 – 1850) के बाद से ही बनने लगी थी। 18वीं शताब्दी के बाद से मनुष्य ने प्रकृति को जीतने का अभियान बहुत तेजी से चलाया तथा 20 वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में पूरी दुनिया को एक गांव (Global Village) बनाने में जुट गया।
लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि मनुष्य अपना यह ‘वैश्विक गांव’ किसके बूते और किसकी कीमत पर बना रहा था।
यह वैश्विक गांव मशीनों और सूचना-तकनीक के बूते निर्मित हो रहा था, जिसमें इंसानी दिमाग की नकल करने की क्षमता वाले सॉफ्टवेयरों की मुख्य भूमिका थी। और, इस गांव के बनने की कीमत चुका रहा था पृथ्वी का पारिस्थितिकी-तंत्र तथा सबसे अधिक मनुष्येत्तर प्राणी। इस सबका नतीजा क्या हुआ इसका अनुमान कुछ साल पहले आई जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की रिपोर्ट से लगता है। रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी से हर रोज जीवों की 150 प्रजातियां लुप्त हो रही थीं। (1)
इनकी ही कीमत पर मनुष्य का वैश्विक गांव बनाने का सपना पूरा हुआ है। दुनिया के अधिकांश हिस्से आज एक-दूसरे से जुड़ चुके हैं और एक-दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं। कोविड महामारी का दुनिया भर में फैलना और उससे निपटने के लिए दुनिया भर में लगभग एक ही प्रकार की प्रशासनिक-प्रविधि, एक ही प्रकार के उपचार (भले ही वे कारगर न रहे हों) का इस्तेमाल (2) इसके प्रमाण हैं कि वैश्विक गांव अपनी परिकल्पना के अनुरूप काम कर रहा है।
इस वैश्विक-गांव के बन चुकने के बाद मनुष्य जाति के लिए आगे का रास्ता क्या है? प्रकृति पर जीत के बाद अब आगे क्या? मनुष्य ने तकनीक को इतना उन्नत बना दिया है कि मशीनें अब इंसानी दिमाग की ‘मशीनी’ तरीके नकल नहीं करतीं, बल्कि वे इंसानी दिमाग के काम करने के पैटर्न को सीखने लगी हैं और अनेक मामलों में इंसानी-दिमाग से बेहतर काम करने लगी हैं। यह मशीनों द्वारा खुद सीखने (मशीन-लर्निंग) और स्वयं अपनी बुद्धिमत्ता (इंटेलीजेंस) पैदा करने का दौर है।
इसने तकनीक की दुनिया में नई-नई चीजों के अवतरण की गति इतनी तेज कर दी है कि मनुष्य अपनी भाषा में जब तक इन नई चीजों के लिए शब्द बनाता है, तब तक चीजें मूलभूत रूप से बदल चुकी होती हैं। इसे इस उदाहरण से समझें – मशीनों के स्वयं सीखने की प्रक्रिया के लिए हाल ही में चर्चित शब्द आया -‘आर्टिफिशियल इंटिलिजेंस’ यानी ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’। इस शब्द के पीछे हम मनुष्यों का यह विश्वास था कि प्राकृतिक तौर पर बुद्धिमत्ता तो सिर्फ मनुष्य की थाती है। मशीनें जो कुछ भी बुद्धिमत्ता दिखाएंगी, वह कृत्रिम ही होगी। लेकिन आज मशीनें जिस तेजी से सीख रही हैं, और खुद की सीखी हुई चीजों को जिस प्रकार अपने तरीके से विकसित कर रही हैं, उससे मनुष्य हतप्रभ है।
मशीनों ने साबित कर दिया है कि उनकी बुद्धिमत्ता को ‘कृत्रिम’ कहकर कमतर आंकना भूल है। मशीनें जो बुद्धिमत्ता विकसित कर रही हैं, वह ‘मनुष्येत्तर बुद्धिमत्ता’ है। फर्क मनुष्य और मनुष्येत्तर का अवश्य है लेकिन मनुष्य का अपनी बुद्धिमत्ता के ‘प्राकृतिक’ होने तथा मशीन की बुद्धिमत्ता के ‘कृत्रिम’, (और मनुष्य की इच्छानुसार संचालित) होने का दावा खटाई में पड़ रहा है। इस प्रकार ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ जैसा शब्द ठीक से प्रचलित होने से पहले ही पुराना और बेमानी हो चुका है, भले ही मनुष्य अपनी अहम्मन्यता में इस शब्द का प्रयोग कुछ और समय तक जारी रखे।

इसी प्रकार, मनुष्य अन्य प्राणियों को स्वयं से हीन समझता रहा है। उसका दावा रहा है कि वह जैविक रूप से अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है, इसलिए उसे उन पर शासन करने का नैसर्गिक अधिकार है। इसी सोच से ‘मानववाद’ (ह्यूमनिज्म) का जन्म हुआ और हमारी सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक गतिविधियों के केंद्र में इसी से जन्मा ‘मानवतावाद’ (ह्यूमनटेरियज्म) रहा है। हमने यह मान लिया कि जो मनुष्य को अच्छा लगता है, वह सभी के लिए अच्छा है। जो मानव जाति के लिए कल्याणकारी है, वह समस्त ब्रह्मांड के लिए उचित है। जो मनुष्य को रास न आए, वह ‘अमानवीय’, घृणित, त्याज्य है।
लेकिन मनुष्य का अपनी विशिष्टता संबंधी यह दावा भी धराशायी हो चुका है। नए शोधों ने यह साबित कर दिया है कि मनुष्य और अन्य जीव-जंतुओं यहां तक कि फंगस और मशरूम में भी जैविक-स्तर पर बहुत भेद नहीं है। (3) नए शोध यह भी बताते हैं अगर मनुष्य अपने अक्खड़पन और विशिष्टता-बोध में उसी दिशा में चलता रहा, जिस दिशा में वह पिछली कुछ सदियों से चल रहा है; तो भले ही पृथ्वी और प्रकृति का भी कुछ नुकसान कर ले, लेकिन इस ग्रह से उसके स्वयं का लुप्त हो जाना तय है। प्रकृति तो अपने नुकसान की भरपाई मनुष्य नामक इस प्राणी के गायब होते ही कर लेगी।
इस तरह, मशीनों और मनुष्येत्तर प्राणियों ने उन अनेक अवधारणाओं पर अपना नि:शब्द दावा पेश कर दिया है, जिन पर अपने नैसर्गिक अधिकार का दावा मनुष्य करता रहा है। मनुष्य के पास अब दो विकल्प हैं। या तो वह अब तक की उपलब्धियों को छोड़ कर वापस लौट जाने की असफल कोशिश करे या फिर इन दावों को स्वीकार करते हुए, इनसे मोल-तोल करते हुए, आगे की राह ढूँढे। जाहिर है पहला मार्ग मनुष्य नहीं चुनना चाहेगा।
उत्तर-मानववाद क्या है?
इस दूसरे मार्ग पर कैसे चला जाए, इस पर वाद-विवाद तथा इसकी प्रविधियों को लेकर बहसें लगभग दो दशक पहले (4) यूरोपीय देशों में शुरू हुईं, जिन्हें मानवोत्तरवाद (ट्रांस-ह्यूमानिज्म) और उत्तर-मानववाद (पोस्ट-ह्यूमानिज्म) के नाम से जाता है। कोविड-महामारी के पहले तक ये शब्द मुख्य रूप से विचार और दर्शन के क्षेत्र में प्रयुक्त हो रहे थे, लेकिन अब ये विकसित देशों में सामाजिक-राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन रहे हैं और अनेक जगहों पर आंदोलन का रूप भी ले रहे हैं। इन विमर्शों का मानना है कि ‘मानववाद’ मनुष्य-जाति का छद्म है तथा अन्य प्राणियों पर शासन करने और प्रकारांतर से अपने विनाश को बुलावा देने का माध्यम है। वे इस वैज्ञानिक तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि मनुष्य भी एक मामूली पशु है और इस विशाल पारिस्थितिकी-तंत्र का अदना-सा हिस्सा है, जैसे ही अन्य मनुष्येत्तर जीव-जंतु। इस पृथ्वी और ब्राह्मांड पर सबका बराबर अधिकार है।
इन विमर्शों के तहत मशीनों की बुद्धिमत्ता और मनुष्य को जेनेटिक परिवर्तन द्वारा बेहतर बनाने की कोशिशों से पारिस्थितिकी-तंत्र में संभावित सकारात्मक परिवर्तनों पर भी विचार किया जा रहा है। मसलन, मनुष्य का एक सामान्य भय रहा है कि मशीनों की बुद्धिमत्ता एक दिन मनुष्य को गुलाम बना लेगी और मशीनें पृथ्वी पर कब्जा कर लेंगी। इसी प्रकार, मानवतावादियों को चिंता है कि जेनेटिक परिवर्तनों से युक्त मनुष्य क्या वास्तव में मनुष्य होगा? मानवोत्तरवाद और उत्तर-मानववाद कहता है कि इस प्रकार के भय और चिंताएं मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ मानने के भ्रम के कारण हैं। इनका एक धड़ा तो यहां तक मानता है कि जेनेटिक परिवर्तनों और मशीनी-बुद्धिमत्ता से संबंधित वैज्ञानिक-शोधों को हर प्रकार के वैज्ञानिक और मानवतावादी-दर्शन के हस्तक्षेप से मुक्त रखना चाहिए।
लगभग दो दशक पहले संयुक्त राज्य अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में मानव क्लोनिंग के अपराधीकरण के लिए एक बिल पर एक भावुक बहस हुई थी। उसमें एक धड़े का कहना था कि “इस मुद्दे पर सर्वोत्तम उपलब्ध विज्ञान को बिना किसी राजनीति या दर्शन के हस्तक्षेप बिना फैसला करने देना चाहिए।” (5) पिछले दो दशकों में ऐसे लोगों की संख्या काफी हो गई है, जिनमें जैव-तकनीकी ये जुड़े व्यासायों से आर्थिक लाभ प्राप्त करने वाले लोग मुख्य हैं। (6)
बहरहाल, भारत समेत तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवियों, नीति-निर्माताओं और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को महामारी-पश्चात की भौतिक और वैचारिक दुनिया में आ रहे इन परिवर्तनों पर विशेष तौर पर नजर रखनी चाहिए। ये विमर्श अभी शुरूआती दौर में हैं। ये किस दिशा में विकसित होंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि कौन सी शक्तियां इसके निर्माण में कितनी भागीदारी कर रहीं हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम इन विमर्शों के विभिन्न पहलुओं को चिन्हित करें और ध्यान से देखें कि मनुष्य और मनुष्य के बीच समता के लिए संघर्ष कर रही विचारधाराओं के प्रति इन विमर्शों का रवैया क्या है तथा मानवों के एक तबके द्वारा शोषित मानव-समुदायों के संबंध में इनका क्या रूख है, तकनीक द्वारा निरंतर अनुपयोगी बनाए जा रहे है लोगों को ये पारिस्थितिकी-तंत्र में कहां रख रहे हैं, आदि। हम इन विमर्शों के महज जानकार-व्याख्याकार न बनें, बल्कि इन्हें सही दिशा देने की कोशिश करें।

लेखक- डॉ प्रमोद रंजन ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पीएचडी की है। वर्तमान में आप असम विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। उनकी दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन तथा समाज, संस्कृति व साहित्य के उपेक्षित पक्षों के अध्ययन में रही है।
संपर्क : janvikalp@gmail.com , मोबाइल : 9811884495
सन्दर्भ-
1 CBD. (2007, May). Secretariat Of The Convention On Biological Diversity Message From Mr. Ahmed Djoghlaf, Executive Secretary, On The Occasion Of The International Day For Biological Diversity. https://www.cbd.int/doc/speech/2007/sp-2007-05-22-es-en.pdf, Retrieved 07 October, 2021, (Retrieved 07 October, 2021)
2 Ranjan, Pramod. “Bhay Ki Mahamari (भय की महामारी).” Pratiman 18, no. 15 (June 2020).
3 Stevens, William K. “Rearranging the Branches on a New Tree of Life.” The New York Times , August 31, 1999. (Retrieved 07 October, 2021)
4 Fernández-Götz, M., Gardner, A., Díaz de Liaño, G., & Harris, O. (2021). Posthumanism in Archaeology: An Introduction. Cambridge Archaeological Journal, 31(3), 455-459. doi:10.1017/S0959774321000135 (Retrieved 07 October, 2021)
5 “Should We Lock the Door on Cell Science?” The Economist, March 16, 2002. (Retrieved 07 October, 2021)
6 Ibid.
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