ज्योति शुक्ला की तीन कविताएँ

बाबा
बाबा मुझे दहेज ना देना
बस एक कलम थमा देना
बना पाउं वजूद मैं अपना
बस इस काबिल बना देना
नहीं चाहिए वर, घर-बार अच्छा
बस एक स्कूल में दाखिला दिला देना
क्या करूंगी लेकर बहु की जिम्मेदारी
पहले किसी महाविद्यालय में पढ़ा देना
बहुत लम्बी है ज़िन्दगी छोटी उम्र में ना ब्याह देना
निकाल के अपनी चौखट से किसी की दहलीज ना लंघा देना
सपने बड़े नही है मेरे पर हौसलों को मेरे बढ़ा देना
मेहनत सारी मेरे हिस्से बस थोड़ा हाथ बंटा देना
परम्पराओं के बंधन से मुझे आप बचा देना
छोटी सी उड़ान का सपना ना विवाह की अग्नि में जला देना
बना सकूं पहचान अपनी बस इतनी मोहलत थमा देना
लोगों की परवाह में मुझे ना रिवाजों की भेंट चढ़ा देना
जो कोई आए लेकर शिकायतें थोड़ा भरोसा मुझ पर जता देना
बस चाहत है नाम आपका बढ़ाऊं इस काबिल बना देना
बाबा मुझे दहेज ना देना
बस! एक कलम थमा देना।

तीसरा लिंग
बालक की किलकारियां गूंजे जब
पूरा घर खुशियां मनाए
पर एक विक्षिप्त बालक आया
न नर ना नारी लिंग उसका
जीवन भर इसका मोल उसने चुकाया
उस नन्ही जान के आने पर
पूरे परिवार ने मातम मनाया
अहम के खातिर अपनों ने निकाला
समाज कभी अपना समझ ना पाया
अपना परिवार होते हुए भी
उसने जीवन अनाथों का बिताया
वारिस वह भी रहा है जहां का
उस घर के भीतर कभी जा ना पाया
अपराध कौन सा था उस अबोध का जो इतना सहा
लिंग योनि का उपासक समाज कभी बता ना पाया
अपने घर में जन्म लेने पर मनहूस वह
और फिर हर शुभ मौकों पर
दुआओं की खातिर उसको बुलाया
स्त्री पुरुष के दरम्यान जीते वह
यह समाज उसको कभी समझ ना पाया
यह कैसी सभ्यता जिसमें बराबरी नही
केवल लैंगिक पूर्णता ने ही समाज में दर्जा पाया
कानून तो देता है कुछ हक उसे
पर अब भी है वह अपनेपन के अभाव में
कब तक ये पाप हम यूं ही करेंगे
हमारे हम जैसे ही अलग थलग बस्तियों में रहेंगे
नाम पहचान छोड़ केवल हिजड़ा कहलाएंगे
बस जीवन अपना मानसिक पीड़ा में बिताएंगे
सिर्फ कागजों पर ही नहीं हकीकत में भी
तीसरे लिंग का सम्मान पाएंगे।।

एक भिखारी
वो चल रहा है अपने हाथ फैलाए हुए
चेहरे पर उदासी और निराशा की चादर समाए हुए
क़दमों में एक अजीब सी लड़खड़ाहट है
दुख संकोच हताशा की उसमें मिलावट है
चल रहा जीवन में, खुशियां पाने की आस है
शायद समुद्र लहरों से बिछड़ने पर हताश है
हाथ फैलाया कुछ मांगने को, किसी ने दिया
किसी ने दुत्कारा किसी ने सीधे कहा जाने को
बना नही होगा अपनी मर्जी से भिखारी वो
कुछ तो मजबूरियों की जकड़न होगी
ये बूढ़ी हड्डियां वर्ना इतना ना चलती
आखिर कुछ तो उसके दर्द की अकड़न होगी
हो सकता है वजह रही हो अपनी ही औलाद की बेरुखी
छोड़ दिया होगा चलना सिखाने वाले को बेसहारा
दुनिया भर में दर दर की ठोकरें खाने को
अपने ही अंशों ने घर से निकाला
बगिया का पौधा जिसने पेड़ बनाया
खुद का जीवन जिसके लिए बिताया
जब जरुरत पड़ी की कोई देखभाल करे
उसका रहना शायद उस पेड़ को रास ना आया
फिर भी उन आंखों में प्यार वही है
अपने बच्चों के लिए दुलार वही है
वक्त बदला है बच्चे बदले हैं
पर उस बुढ़े के भीतर ममता का सार वही है
ज्योति शुक्ला ने लक्ष्मीबाई महाविद्यालय से हिन्दी में स्नातक और दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई की हैं। सम्पर्क – shuklajyoti144@gmail.com