यादों में नामवर जी- प्रेमकुमार मणि

आज 28 जुलाई नामवर जी का जन्मदिन है!
हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचक नामवर सिंह कुछ मामलों में सौभाग्यशाली थे, और कुछ मामलों में अभागे. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मनुष्य का सबसे बड़ा दुःख है, दूसरों द्वारा उसे नहीं समझा जाना. प्रतीत होता है, यह दुःख नामवर जी ने भरपूर झेला था. मेधावी और उपाधिधारी होने के बावजूद जीवन-संघर्ष उन्हें कम नहीं झेलने पड़े. बनारस, सागर, जोधपुर होते हुए वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दिल्ली पहुंचे. अपनी प्रतिभा और लगन से उन्होंने इस विश्वविद्यालय के भाषा केंद्र को संवारा. हिन्दी भारत की राजभाषा तो थी और राष्ट्र भाषा होने का भी उसे थोड़ा गुमान था; लेकिन जुबानों की दुनिया में उसकी स्थिति अच्छी तो क्या, संतोषजनक भी नहीं थी . हिन्दी के माध्यम से कोई लेखक -कवि तो हो सकता था, बौद्धिक नहीं.

इस धारणा को नामवर जी ने तोडा. जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में उनके किंचित प्रयोगों का ही प्रतिफल था कि धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य के छात्रों को भी गंभीरता से देखा जाने लगा. इसमें नामवर जी की बड़ी भूमिका रही. समाज और भाषा संवारने के पहले उन्होंने स्वयं को संवारा था. वह एक ऐसे बुद्धिजीवी थे, जिन्हे सुनने अंग्रेजी सहित दूसरी भाषाओं के विद्वान भी आते थे. यह सब उनका उत्स था. लेकिन उनका दुःख भी कम नहीं था. वह लम्बे समय तक शैक्षणिक मठों से जुड़े रहे. वह किसी को प्रोफ़ेसर बना सकते थे, किसी को पुरस्कार दिला सकते थे. इन सब को लेकर उनके इर्द-गिर्द एक चमचा दल भी उभर आया था. इस दल को झेलना कितना मुश्किल होता है, इसे वही समझ सकता है, जो प्रतिष्ठानों से जुड़ा हो. अनेक लेखक ऐसे प्रतिष्ठानों से जुड़कर विनष्ट हुए हैं. नामवर बिलकुल विनष्ट भले नहीं हुए, लेकिन कुप्रभावित खूब हुए. तमाम प्रतिभा होते हुए भी वह विचार और परंपरा की कोई वैसी लकीर नहीं खींच सके, जिसकी उनसे उम्मीद थी.
वह एक ऐसे बुद्धिजीवी थे, जिन्हे सुनने अंग्रेजी सहित दूसरी भाषाओं के विद्वान भी आते थे.
यह बात एक बार बातचीत में उन्होंने स्वीकार की थी. लेकिन हाँ, वह लकीर के फ़क़ीर और झक्की कभी नहीं हुए, जैसे रामविलास शर्मा हुए. ज्ञान के अन्य अनुशासनों से उन्होंने अपने को जोड़ कर रखने की भरसक कोशिश की. आखिरी समय तक वह जिज्ञासु बने रहे और अपने भीतर कम-से-कम गुरुडम विकसित होने दिया. ऊपर से चाहे जितना गंभीर दीखते, भीतर से इतने सहज और कोमल थे कि कोई बच्चा भी उनसे उलझ सकता था. अपनी गलतियों और कमजोरियों को वह खूब समझते थे; लेकिन कुछ समय तक सक्रिय राजनीति से जुड़े रहने के कारण यह जान गए थे, कितनी बातें, कहाँ और कैसे रखनी है. उनके व्यक्तित्व पर राजनेता वाला गुण-अवगुण हमेशा हावी होता था. अनेक बार उन्होंने उपस्थिति के आधार पर अपने वक्तव्य दिए. कई बार धारा के विरुद्ध बोल कर सनसनी पैदा की.
मेरे जानते उनका सबसे बड़ा सुख था कि उन्हें काशीनाथ सिंह जैसा भाई मिला था. भारतीय लेखकों को घर में बहुत कम समझा जाता है. यदि काशीनाथ नहीं होते तो नामवर जी भी यह पीड़ा झेलने के लिए अभिशप्त थे. लेकिन काशीनाथ सिंह को लगा कि उनका भाई असाधारण है, थे भी. इस असाधारण भाई के प्रति वह पौराणिक रामकथा के लक्ष्मण की तरह समर्पित रहे. नामवर अपनी साधना से विचलित न हों, इसके लिए हरसंभव साधन और समय उन्होंने उपलब्ध कराया. ऐसा सुख शायद ही किसी हिन्दी लेखक को नसीब हुआ है. उनके द्वारा लिखे संस्मरणों में नामवर जी का जो व्यक्ति रूप निखर कर आया है, उसकी रौशनी में आप नामवर जी के लिखे का अध्ययन करेंगे तो कुछ विशिष्ट अर्थ उभरेंगे.
काशीनाथ सिंह को लगा कि उनका भाई असाधारण हैं , थे भी. इस असाधारण भाई के प्रति वह पौराणिक रामकथा के लक्ष्मण की तरह समर्पित रहे.
28 जुलाई 1926 को बनारस के पास जियनपुर में एक ग्रामीण स्कूल शिक्षक के घर जन्मे नामवर ने बनारस विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी. जब वह इक्कीस वर्ष के थे, तब देश ब्रिटिश गुलामी से मुक्त हुआ और यहां एक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था स्थापित हुई. उन्ही दिनों उन्हें सुप्रसिद्ध विद्वान हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का सानिध्य मिला, जो कुछ ही समय पूर्व रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शिक्षा केंद्र शांति निकेतन से लौटे थे. द्विवेदी जी में नामवर सिंह ने कुछ देखा और वह उनके केवल अध्यापक नहीं, बल्कि सम्पूर्ण रूप से गुरु बन गए. 1951 में एम ए करने के बाद बीएचयू में ही वह अध्यापक बनाये गए और वहीँ से 1956 में ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’ विषय पर पीएचडी की उपाधि हासिल की. 1959 में वहीं से लोकसभा उपचुनाव में अविभक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीद्वार के रूप में चुनाव लड़ा और हारे. जीवन की मुश्किलों को झेलते हुए 1970 के दशक में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े और उसके भारतीय भाषा विभाग को संस्कारित किया. वह एक योग्य अध्यापक, साहित्यालोचक, विमर्शकार और सबसे बढ़ कर गंभीर वक्ता के रूप में रेखांकित हुए.
नामवर सिंह ने अपने ज़माने को कितना प्रभावित किया, यह तो बहस का विषय होगा, लेकिन उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध रूप से आजीवन बनी रही. उनके वक्तव्य, विचार और टिप्पणियों को नज़रअंदाज करना मुश्किल होता था. उन्हें भूलना हिंदी समाज और साहित्य के लिए संभव नहीं होगा. वह कौन-सी चीज है, जो नामवर को विशिष्ट या खास बनाती है. मेरी दृष्टि में घूम-घूम कर दिए गए भाषणों से उन्होंने हिन्दी भाषी जनता के बीच, खास कर उसके साहित्यिक अखाड़ों को प्रबुद्ध और विमर्शप्रिय बनाने की कोशिश की. वैचारिक जड़ता को वैज्ञानिक चेतना से दूर करने का प्रयास किया. एक समय महात्मा गाँधी ने हिन्दी लेखकों पर ताना मारा था कि आप हिन्दी वालों के बीच कोई रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जगदीशचंद्र बसु और प्रफुल्लचन्द्र राय क्यों नहीं है ? जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में हिन्दी लेखकों की तंगदिली पर कटाक्ष किया है.
हिन्दी-व्याकुलों की तरह नामवर कोई थेथरई नहीं कर सकते थे. वह अपने साहित्य संसार के अंतर्विरोधों को समझते थे. हिन्दी पर सामंती-पुरोहिती छाप बहुत गहरी है. इसे दूर किए बगैर यहाँ कोई आधुनिकता और नई विचारना संभव नहीं है. इसलिए उन्होंने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया. अपने हिंदी साहित्य के कितने आलोचक, अध्यापक तो हैं, लेकिन इस उम्र तक उनके द्वारा खींची गयी लकीर को कोई छोटा क्यों नहीं कर सका, जबकि उन्होंने मात्रात्मक रूप से बहुत कम लिखा है. उन तमाम मठों और पदों पर अब भी कोई न कोई है, जिन पर वह कभी रहे थे, लेकिन वे नामवर की तरह चर्चित नहीं हुए. इसका कोई तो अर्थ-रहस्य होगा ही. निश्चित ही उन्हें विशिष्ट बनाने वाली चीजें कुछ दूसरी थीं.
इसकी खोज कुछ अधिक दिलचस्प हो सकती है. हमें इसके संधान की कोशिश करनी चाहिए. हज़ारों लोगों की तरह मैंने भी नामवर को देखा-समझा, सुना और पढ़ा. निकटता भी रही. कभी -कभार हलकी और प्यारी नोंक-झोंक भी हुई. साहित्य का कभी विधिवत छात्र नहीं रहा , इसलिए स्वाभाविक था मैं उन्हें जरा भिन्न नजरिये से देखता था. ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘कहानी : नयी कहानी ‘ और ‘दूसरी परम्परा की खोज ‘ को मैं उनकी मुख्य निधि मानता हूँ. इन तीनों से गुजरते हुए महसूस किया है, हिंदी साहित्य को उन्होंने एक नया मिजाज ,नया संस्कार और सबसे बढ़ कर एक नया नजरिया दिया है. वह नया नजरिया या दृष्टिकोण क्या है? इसके जवाब ढूंढने के लिए हमें हिंदी साहित्य, बनारस और नामवर तीनों की मीमांसा करनी होगी. बेहतर होगा, हम उस तरफ ही अग्रसर हों.
देश को आज़ादी मिलने के इर्द-गिर्द के हिंदी साहित्य का अनुमान किया जाना मुश्किल नहीं है. बस दशक भर पूर्व प्रेमचंद ,जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल प्रभृति लोग दिवंगत हुए थे. निराला, पंत, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल आदि सक्रिय थे. छायावाद का दौर समाप्त हो गया था और प्रगतिवाद-प्रयोगवाद की कोंपले खिल रहीं थीं. राजनीतिक क्षेत्र में विचारों का कोहराम मचा हुआ था. दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद वैचारिक शीतयुद्ध का दौर शुरू हुआ था. एशियाई समाज में नवजागरण के नये रूप विकसित हो रहे थे और आधुनिकता की परस्पर विरोधी व्याख्याएं प्रस्तुत की जा रही थीं. तीसरी दुनिया के देशों में आज़ादी की लड़ाई तेज हो गयी थी. इन सबकी परछाइयां भारतीय मानस पर दृष्टिगोचर हो रही थीं. पूरे देश में समाजवादी विचारों को लेकर एक उत्साह दिखलाई पड़ता था.
ऐसे समय में भारत की हिंदी पट्टी का रूढ़िवादी नगर बनारस अपनी वर्णाश्रमी चेतना में ऊंघता दीखता था. गाय, गंगा और गीता की त्रिवेणी इस नगर की चेतना पर तो हावी थी ही यहाँ के हिंदी साहित्य को भी घेरने की भरसक कोशिश कर रही थी. कबीर, रैदास और प्रेमचंद को इस नगर ने पैदा जरूर किया था, लेकिन उनके विचारों से दूरी ही बनाये रखी थी. कठमुल्ले लेखकों -प्राध्यापकों का यहाँ जमावड़ा था. बनारस की जनता, वहां के कारीगर, व्यवसायी और अन्य लोग एक अलग रौ में होते थे और बुद्धिजीवियों का मिजाज अलग होता था. इस द्वैत को कुछ ही लोगों ने समझा था. काशी-बनारस वैचारिक करवट लेने केलिए कसमस कर रहा था. यही वह समय था, जब समाजवादी राममनोहर लोहिया ने बीएचयू परिसर में अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया, जो ‘जाति और योनि के दो कठघरे’ शीर्षक से एक लेख रूप में विनिबंध हो उनकी किताब ‘जाति प्रथा’ में संकलित है. इस बनारस में बंगला नवजागरण और रवीन्द्रनाथ टैगोर की चेतना से शिक्षित-दीक्षित और संस्कारित होकर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जब आये तब उन्हें अनेक तरह का विरोध झेलना पड़ा. इसकी झलक नामवर जी की किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ और विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब ‘व्योमकेश दरवेश’ में मिलती है.
समाजवादी राममनोहर लोहिया ने बीएचयू परिसर में अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया, जो ‘जाति और योनि के दो कठघरे’ शीर्षक से एक लेख रूप में विनिबंध हो उनकी किताब ‘जाति प्रथा’ में संकलित है.
नामवर सिंह ने ऐसे में यदि द्विवेदी जी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया तब यह बतलाने की जरूरत नहीं रह जाती कि उनकी विचारधारा क्या थी. नामवर जी को भारतीय चिंतन परम्परा की दो मुख्य धाराओं में से एक को चुनना था, उन्होंने उस धारा को चुना जो बुद्ध, कबीर, टैगोर से होते हुए द्विवेदी जी तक आयी थी. वह किसी वैचारिक दुविधा में नहीं थे. बनारस ने द्विवेदी जी को भी बहिष्कृत किया और नामवर जी को भी. इसकी कहानी कहने का फ़िलहाल वक़्त नहीं है. लेकिन नामवर जी ने अपने गुरु के वैचारिक ध्वज को कभी नीचे नहीं किया. उसे न केवल थामे रहे, अपितु चारों दिशाओं में घुमाते भी रहे, उसे सक्रिय रखा और परिवर्धित भी किया, नयी पीढ़ी को इस चेतना की घुट्टी पिलाते रहे. कभी कोई गुरुडम नहीं विकसित किया, सोच की एक धारा, एक परंपरा जरूर विकसित की. यही कारण रहा कि नौजवान लेखकों -कवियों-साहित्यसेवियों के बीच वह निरंतर चर्चित रहे, सम्मानित रहे.

नामवर जी अपने बौद्ध गुरु भिक्षु जगदीश कश्यप के बाद मैंने नामवर जी को ही इतना उदार देखा कि उनके मंतव्य पर भी यदि कोई आपत्ति की, प्रतिरोध किया तब उसे उनने ध्यान से सुना. यदि मैं गलत हुआ तो उनने समझाया और यदि उनकी स्थापना में कोई खोट हुआ तब उसे भी सहजता से स्वीकार किया. सम्भवतः 2003 की बात होगी. सारनाथ में ‘संगमन’ का आयोजन था. हिंदी कथा-विधा पर चर्चा हो रही थी, विषय पूरा-पूरा याद नहीं आ रहा. अपने वक्तव्य के दौरान, मैंने उनके भाई काशीनाथ सिंह की दो कहानियों ‘चोट’ और ‘सुख’ को कठघरे में लाने की कोशिश की. मेरी नज़र में ‘चोट’ सामंतवादी मिजाज की कहानी है और ‘ सुख ‘ मशहूर रूसी लेखक चेखब की एक प्रसिद्ध कहानी की फूहड़ पैरोडी. साहित्य में इन दोनों भाइयों का ऐसा प्रभाव था कि मेरे वक्तव्य के बाद हमारे लेखक साथी मुझसे कटने लगे कि कहीं मुझसे निकटता उन्हें सिंह बंधुओं से दूर न कर दे. मुझ पर इन सब का कभी कोई असर नहीं पड़ा है. उस वक़्त भी मैं इस अलगाव के मजे ले रहा था.

दूसरे दिन नामवर जी ने मुझे बुलाया और मेरी राय से सहमति जताई, यह कहते हुए कि मैंने इन कहानियों को इस रूप में नहीं देखा था. तो यह थे नामवर जी. इसके पूर्व 2001 में जब पटना में नामवर के निमित्त उत्सव आयोजित हुआ था, तब उस अवसर पर मैंने अपने एक लेख में लिख दिया कि मेरे गुरु मोटी मालाओं के चक्कर में पड़ गए हैं. केवल इसके आधार पर वह लेख प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका ‘रौशनाई ‘ से कम्पोज़ हो जाने के बाद भी हटा दिया गया. अन्यत्र जब छपा, तब उसे मेरे ‘मित्रों’ ने नामवर जी के समक्ष रखा, जो उनकी नजर में नामवर जी पर मेरा भौंडा आक्रमण था. नामवर जी ने फ़ोन करके अपनी प्रतिक्रिया दी. वह बिलकुल रंज नहीं थे. हाँ, प्रभाष जोशी पर मेरी टिप्पणी को उन्होंने अच्छा नहीं माना. मैंने लिखा था कि जिस तरह अज्ञेय अपने आखिरी समय में एक कुटिल विद्यानिवास मिश्र के चक्कर में पड़ गए थे, वैसे ही नामवर जी प्रभाष जी के चक्कर में पड़ गए हैं, जो उन्हें लेकर इस उम्र में अश्वमेध यात्रा कर रहा है. मैं नहीं कहूंगा कि उत्तर मार्क्सवादी दौर में विकसित बहुजन चेतना को उन्होंने आत्मसात कर लिया था, लेकिन उनकी दिलचस्पी इस ओर थी.

उन्होंने फुले ग्रंथवाली को पूरा पढ़ा था. अपने साथी जीपी देशपांडे जी के नाटक ‘सत्यशोधक’ के बारे में विस्तार से उन्होंने ही पहली बार मुझे बतलाया. आंबेडकर की किताब ‘बुद्ध और उनका धम्म’ उन्होंने मनोयोग से पढ़ा था. एक बार उससे सम्बद्ध इतने प्रश्न उठाये कि मैं चकित रह गया. आंबेडकर के इस नजरिये से वह प्रभावित थे कि बुद्ध के गृहत्याग का कारण सामाजिक प्रश्न था, न कि प्रचलित वह कथा जिसमे रोगी, वृद्ध और मृत को देखने की बात कही गयी है. दलित साहित्य पर वह कभी-कभार मजाकिया टिप्पणियां करते रहे, लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसी राम की आत्मकथाओं को महत्वपूर्ण माना. हालांकि दलित साहित्य को एक अलग प्रकोष्ठ के रूप में विकसित करने के उनके इरादे से मैं असहमत रहा. नामवर जी का समय सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक रूप से शीत-युद्ध का समय था. भारतीय मार्क्सवादी-समाजवादी शक्तियां नेहरू-गांधी के व्यामोह में उलझ रही थीं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एक सुविधा थी कि उसे सोवियत रूस का संरक्षण मिल रहा था . इस संरक्षण ने भारत की प्रगतिशील वैचारिकता का बड़ा नुकसान किया. एक बार स्वयं को मार्क्सवादी घोषित कर देने के बाद वैचारिक आत्ममंथन-विश्लेषण की कोई जरुरत नहीं रह जाती थी. जैसे किसी ईश्वरवादी को किसी तरह के चिंतन की जरुरत नहीं रह जाती. सब कुछ ईश्वर करता है, सब कुछ उसकी मर्जी से है, तब तो विचार की क्या आवश्यकता है. ऐसे में तो भक्ति ही सब कुछ है. सम्पूर्ण शक्ति ईश्वर की इबादत और भक्ति में झोंक दो. मुक्ति का बस यही मार्ग है. मार्क्सवादियों के साथ यही हुआ. स्वतंत्र चिंतन को उन्होंने अनावश्यक समझा. मुक्ति का मार्ग जब मिल गया है, तब आँख मूँद कर उस पर चलने में ही भलाई है. इस सोच ने उस दौर में भारतीय बुद्धिजीवियों का भरसक सत्यानाश किया.
नामवर भी उसके किंचित शिकार हुए. उनकी विशेषता यही है कि आखिर में उसकी सीमाओं को भी उन्होंने पहचाना. अपनी चर्चित किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने शास्त्र और लोक के जिस द्वंद्व की बात रखी है, उसकी सम्यक व्याख्या अभी नहीं हुई है. हर इंसान की सीमाएं होती हैं, उनकी भी थीं. नामवर जी ने अपने समय का,अपने हिस्से का सत्य बयां किया है. हिंदी साहित्य को वर्णवादी कुंठा और मार्क्सवादी कठमुल्लेपन से मुक्त करने की उन्होंने भरसक कोशिश की. कुछ वर्ष पूर्व एक साक्षात्कार में उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन की विफलता पर टिप्पणी करते हुए कम्युनिस्ट नेताओं की तुलना उस ओझा से की थी जिनके भूत भगाने केलिए इस्तेमाल किये गए सरसों में ही भूत छुपा था. भूत भागता तो कैसे ! कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर ही गड़बड़ी थी. अपनी, अपने विचारों की गड़बड़ियों या कमियों को स्वीकारने में उन्हें कभी संकोच नहीं हुआ. जितना मैंने समझा वैचारिक मामलों में वह हठी-जिद्दी बिलकुल नहीं थे. हाँ, इतने कच्चे भी नहीं थे कि कोई उन्हें बरगला दे. डॉ रामविलास शर्मा की लोकप्रियता, सर्वस्वीकार्यता और उनकी गट्ठर की गट्ठर किताबें उन्हें विचलित नहीं कर पायीं. उन्हें कोई आतंकित नहीं कर सकता था.

लेखक- प्रेमकुमार मणि प्रसिद्ध साहित्यकार व आलोचक हैं। आप बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे हैं।
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