संजय पंकज के सात गीत

पर्यावरण गीत
कंकरीट के जंगल में
चली उजाले की आँधी
हरियाली को लील गई!
खिड़की से उतरा चंदा
लोहे पर अटक गया है
कंकरीट के जंगल में
सूरज भी भटक गया है
रौशन दानों पर जुगनू
तितली को है कील गई
नीलकंठ – सुग्गा – मैना
गौरैया औ’ ललमुनिया
जहर हवा के हाथों में
सौंप गई अपनी दुनिया
कंधे पर बैठी बुलबुल
लेकर उसको चील गई!
घायल है नील गगन अब
और दिशाएँ पीली हैं
धरती के पोर पोर में
जल की धार नुकीली है
प्राणों के रेशे रेशे
अपनी साँसें छील गई!
जीने के संकट ज्यादा
थोड़ी थोड़ी राहत है
अंतर के अरमानों की
कैसी कैसी चाहत है
भूख जगा सागर आया
प्यास उड़ाकर झील गई

लेकर आए जाल शिकारी
दाना पानी सपने तिनके
लेकर आए जाल शिकारी!
धूल उड़ाते शोर मचाते
लेकर आए गाल शिकारी
रंगो के फव्वारे फूटे
फूटे गंधों के गुब्बारे
खेल घिनौने देख रहे हैं
मंदिर मस्जिद औ’ गुरुद्वारे
नारे वादे पुरखे जलसे
लेकर आए झाल शिकारी!
बाघ भेड़िए गीदड़ मर्कट
सबके सब उतरे मंचों पर
न्याय करे कैसे कोई भी
तलवार तनी सरपंचों पर
छक्का पंजा कौड़ी चौसर
लेकर आए चाल शिकारी!
चमचे बमचे रंग रंगीले
बनकर राजा जानी ऐंठे
मौसम ऐसा लुटा रहे हैं
खोल खजाने दानी बैठे
जादू मंतर झोला गमछा
लेकर आए माल शिकारी!
ठाट बपौती आसन मारे
सैर हवाई गगनी बातें
सोने जैसे सबदिन उनके
चांदी जैसी काली रातें
पट्टे सट्टे कुर्ते टोपी
लेकर आए थाल शिकारी!
मानस कोरे
प्रश्न बहुत हैं
उत्तर थोड़े !
नाच रहे हैं
पागल घोड़े !
लक्ष्यहीन सब
भाग रहे हैं ,
सोए – सोए
जाग रहे हैं ,
बिना हृदय ये
मानस कोरे !
घनी घटाएँ
घिर रात हुईं
बे-मौसम ही
बरसात हुईं
पड़े फफोले
फूटे फोड़े !
लोग यहाँ कुछ
चलने वाले ,
कुछ तो केवल
छलने वाले ,
नाहक बोते
काँटे-रोड़े !

अग्नि कोख में पलती अम्मा
चूल्हा हो या हो घर आँगन
सब में खटती जलती अम्मा !
धूप संग दिन रात उसी के
जिसमें जलती गलती अम्मा !
खुली देहरी हवा बाहरी
जब भी घर के प्रतिकूल गई
असमय देख पसीने माथे
अम्मा अपना दुख भूल गई
बिस्तर से बिस्तर तक पहुँची
तब तक केवल चलती अम्मा !
कभी द्वार से लौट न पाए
कोई भी अपने – बेगाने
घर भर में हिम बोती है जो
उसके हिस्से झिड़की तान
गोमुख की गंगा होकर भी
अग्नि-कोख में पलती अम्मा !
कैसी भी हो विपदा चाहे
उम्मीद दुआओं की उसको
बिना थके ही बहते रहना
सौगंध हवाओं की उसको
चंदा-सा उगने से पहले
सूरज जैसी ढलती अम्मा !
पीर-पादरी-पंडित-मुल्ला
मंदिर-मस्जिद औ’ गुरुद्वारे
हाथ उठाए आँचल फैला
माँग रही क्या साँझ-सकार
वृक्ष-नदी-गिरि शीश झुकाती
जितना झुकती फलती अम्मा !
आस जगाएं
हम मुस्काएं
बच्चे बन जाएं!
मौसम के संग
रास रचाएं
मुंह खोल
हवा को पी लें
सूरज चंदा –
सा जी लें
दबी दूब में
आस जगाएं!
हम मुस्काएं!
धरती पर
क्या कुछ कम है
फिर भी क्यों
गम ही गम है?
सांसो में
विश्वास उगाएं!
हम मुस्काएं
धरती-अंबर
हम मापें
लंबे-बौने
कद नापें
दूर-दूर को
पास बनाएं!
हम मुस्काएं!
कबीर जी
अभी तुम्हारी बहुत जरूरत
आओ कबीर जी!
सत्य शब्द के तुम्हीं अकेले
वाचक साधक हो,
ठहरी ठहरी दुनिया में तुम
पागल धावक हो
करम धरम की अमिट निशानी
आओ लकीर जी!
दोहे साखी के धन पर तुम
बैठे कुबेर हो,
इकतारे की पावन धुन पर
मनहर सुटेर हो,
सबद सबद की संपदा तुम्हारी
आओ अमीर जी!
सूत सूत की मजबूती की
झीनी चादर हो,
भीनी भीनी खुशबू डूबे
जगत समादर है
लिए ताजगी सबकी खातिर
आओ समीर जी!
हाथ लुकाठी लेकर आओ
तुम हरकारे हो,
शीतल शीतल वाणी भीतर
तुम अंगारे हो,
ईश – खुदा के भेद मिटाने
आओ फकीर जी!
झीनी चादर
चुप हो जा चुप हो जा साधो
कब तक बोलेगा!
धरा गगन के बीच अडिग तू
कब तक डोलेगा!
कब तक तेरी खंजरी बोले
कब तक इकतारा,
दिखा पखेरू उड़ता गाता
निकला बंजारा
एक ठौर पर दोहे का रस
कब तक घोलेगा!
धू धू करती दुनिया जलती
सब के सब सोए,
जंगल पर्वत झील नदी के
सपनों में खोए,
अपनी साखी में सागर को
कब तक तोलेगा!
अपनी कीमत सभी बोलते
बाजारों में हैं,
खुद को रखकर तुले तराजू
व्यापारों में हैं
एक रमैनी के बल पर तू
कब तक मोलेगा!
तेरी सांसें ताना भरनी
तन के करघे पर,
झीनी चादर जगमग जगमग
मन के अरघे पर,
गांठ जगत की सबद मधुर से
कब तक खोलेगा!

प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी, कवि, गीतकार और बेला पत्रिका के संपादक डॉ.संजय पंकज का जन्म बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले में हुआ। आप मुज़फ्फरपुर में आयोजित होने वाले लगभग सभी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की धुरी हैं। डॉ. पंकज का सामाजिक सरोकार और सास्कृतिक फैलाव मुज़फ्फरपुर के वासियों को गौरवान्वित करता है। आप सतत सृजनरत एक कर्मयोगी और आध्यामिक संत भी हैं। सम्पर्क- ‘शुभानंदी’, नीतीश्वर मार्ग, आमगोला, मुजफ्फरपुर-842002, (बिहार), मोबाइल- 6200367503