एक निशान, एक विधान और एक प्रधान का नारा देने वाले भारत के एकीकरण के महानायक थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी- रसाल सिंह

6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता में जन्मे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे प्रखर राष्ट्रभक्त थे जिन्होंने न सिर्फ भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया बल्कि एक अखंड और संप्रभु भारत के सपने को साकार करने के लिये अपना जीवन-सर्वस्व समर्पित कर दिया। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे होनहार सपूत थे जिन्होंने भारत माता को प्यार करते हुए “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” की सार्थकता और महत्ता सिद्ध की। अपनी मातृभूमि के लिए अभूतपूर्व त्याग, बलिदान, समर्पण, संघर्षशीलता, संगठन-कार्य और बौद्धिक-वैचारिक तेजस्विता, प्रखर वक्तृता जैसे विशिष्ट गुण उन्हें स्वाधीन भारत का महानायक बनाते हैं।

5 अगस्त 2019 को भारत सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को भारतीय संविधान से पूर्ण रूप से हटाने का ऐतिहासिक और साहसिक निर्णय लिया गया। दरअसल, इससे पहले जम्मू-कश्मीर हमें भारत के नक्शे में तो दिखाई देता था किंतु रक्षा, विदेश और संचार जैसे तीन विषयों के अलावा भारतीय संघ और संविधान से उसकी स्वायत्तता की स्थिति थी। जम्मू-कश्मीर में अलग संविधान, अलग झंडा, अलग नागरिकता, अलग प्रधान (जिसे वजीर-ए-आज़म या प्रधानमंत्री कहा जाता था) और अलग न्याय विधान ( रणवीर पैनल कोड) आदि का प्रावधान था। ये पृथकतावादी प्रावधान जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय के बाद किये गये थे। ये प्रावधान साम्प्रदायिक तुष्टिकरण और राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिणाम थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद से लेकर सड़क तक और दिल्ली से लेकर श्रीनगर तक; हमेशा भारतीय संविधान के इन विभाजनकारी प्रावधानों- अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए का पुरज़ोर विरोध किया। उनके जीवन की आखिरी और निर्णायक लड़ाई भी इस चक्रव्यूह को तोड़ने की ही थी। “एक निशान, एक विधान और एक प्रधान” का नारा उन्होंने अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए के विरोध में ही दिया था। देश की एकता और अखंडता में उनका गहरा विश्वास था। इसके लिये वे लड़ते हुए बलिदान हो गये। “जहाँ हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है” और ” कश्मीर हो या गोहाटी; अपना देश, अपनी माटी” जैसे नारों से राष्ट्रवादी विचारों के असंख्य नौजवान प्रेरणा पाते रहे हैं। उनमें से अनेक आज भारत सरकार और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नीति-निर्माता हैं। ये डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान से रक्त-सिंचित विचारभूमि के फल-फूल हैं।

धारा 370 और 35 ए की शुरुआत उस समय हुई जब अन्ततः ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा कर दी गई थी। द्विराष्ट्र सिद्धान्त के साथ देसी रियासतों को भारत या पाकिस्तान – किसी भी राष्ट्र में विलय होने का प्रस्ताव रखते हुये आखिरी फैसला रियासतों के राजाओं पर छोड़ दिया गया था। लगभग सभी रियासतों के विलय के बाद जब महाराजा हरि सिंह से भारत या पाकिस्तान में शामिल होने को कहा गया तो उन्होंने जम्मू-कश्मीर को दोनों ही देशों में से किसी में भी विलय करने से इन्कार करते हुये खुद को स्वतंत्र राज्य बनाये रखने का फैसला किया। भारत को इसमें कोई आपति नहीं थी। लेकिन पाकिस्तान ने प्रारम्भ से ही जम्मू-कश्मीर राज्य को जबरन हथियाने का प्रयास किया। 22 अक्टूबर, 1947 की रात को पाकिस्तान की तरफ से कबाइलियों ने जम्मू-कश्मीर पर सशस्त्र हमला बोल दिया। इस हमले में पाकिस्तान द्वारा किये गये बर्बर व्यवहार और नरसंहार को देख कर महाराजा हरि सिंह ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की गुहार लगाई। इस प्रकार भारतीय संघ में विलय-पत्र (जिसे “इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन” कहा जाता है) पर महाराजा हरि सिंह ने हस्ताक्षर कर जम्मू-कश्मीर को भारत में पूर्ण रूप से विलय करना स्वीकार कर लिया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन वही सहमति-पत्र था जिस पर हस्ताक्षर कर अन्य देसी रियासतों ने स्वयम् को पूर्ण रूप से भारत में विलय किया था। फर्क था तो बस तारीख का जो जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए 15 अगस्त 1947 न हो कर 22 अक्टूबर,1947 थी। बाकी तमाम शर्तें वही थीं, जो अन्य किसी भी देसी रियासत के विलय के लिये तय की गई थीं।

लेकिन शेख अब्दुल्ला, जो उस दौरान हिन्दू महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध संघर्षरत था और मुस्लिम बहुल कश्मीर का नेता और प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का करीबी था; अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण जम्मू-कश्मीर के इस विलय के खिलाफ था। इसलिये उसने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग की। नेहरू और शेख अब्दुल्ला में घनिष्ठ मित्रता होने के कारण नेहरू ने सरदार पटेल और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा संविधान में अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए शामिल करने का विरोध करने पर भी शेख अब्दुल्ला की बात मानकर ये प्रावधान किये। इस प्रकार संविधान में अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को जोड़कर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया गया और उसे संविधान के अलग खांचे में रख दिया गया। यह भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता पर बड़ी चोट थी। जिस संविधान सभा में अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए को पारित किया गया था, उसके सदस्य डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका जोरदार विरोध किया था।
डॉ मुखर्जी का मानना था कि संविधान में शामिल किये गये ये प्रावधान जम्मू-कश्मीर को भारत से कभी भी नहीं जुड़ने देंगे। इन प्रावधानों को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शेख अब्दुल्ला के त्रि-राष्ट्र सिद्धान्त का स्वीकार कहा और इसी के विरोध में नेहरू मंत्रिमंडल से उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार वह अब खुले रूप में अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए के विरोध में सामने आये और अखंड भारत के निर्माण के उद्देश्य से और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ नामक राष्ट्रवादी राजनीतिक दल का गठन किया। जब भारतीय जनसंघ को ‘हिंदूवादी साम्प्रदायिक संगठन कहकर पंडित नेहरू ने उसे कुचलने की धमकी’ दी तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने निडरतापूर्वक विपक्ष को कुचलने वाली इस मानसिकता को कुचलने का संकल्प व्यक्त किया।
इतिहास साक्षी है कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा भारतीय जनसंघ के बीजारोपण से 6 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी नामक वृक्ष तैयार हुआ जो कि आज एक विशाल वटवृक्ष बन चुका है। यह न सिर्फ दुनिया का सबसे अधिक सदस्यता वाला राजनीतिक दल है, बल्कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रचंड बहुमत प्राप्त करते हुए कांग्रेस को कुचल/नष्ट करने वाला दल भी है। 21 अक्टूबर, 1951 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की पहली राष्ट्रीय समिति की बैठक हुई। इस बैठक में सर्व-सम्मति से स्वीकृत प्रस्ताव में जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलयन अर्थात भारत के पूर्ण एकीकरण का संकल्प लिया गया। भाजपा की सरकार ने अपने पितृपुरुष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के भारत के एकीकरण के स्वप्न को साकार किया है।
आजादी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने सर्वदलीय मंत्रिमंडल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उद्योग, वाणिज्य एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में नियुक्त किया। दरअसल, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। इससे पहले संविधान सभा में उनके प्रदर्शन, राजनीतिक दूरदर्शिता, शानदार भाषण कला और संसदीय प्रक्रिया के ज्ञान और अनुभव ने उन्हें अभूतपूर्व ऊँचाई प्रदान कर दी थी। उनका राजनीतिक प्रभाव भी अद्वितीय था।
उनकी राष्ट्रवादी वैचारिक प्रतिबद्धता समझौतावादी और स्वार्थपरता वाली राजनीति से मेल नहीं खाती थी। इसलिए वैचारिक मतभेदों के कारण डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ज्यादा दिनों तक मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं रह सके। पाकिस्तान में हिन्दू, सिख आदि अल्पसंख्यकों पर हो रहे धार्मिक अत्याचारों और प्रताड़ना के विरोध में तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुये समझौते में ढिलाई से दुखी होकर 6 अप्रैल, 1950 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरूजी) से प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त करने के बाद 21 अक्टूबर, 1951 को दिल्ली में भारतीय जन संघ की स्थापना की और इसके पहले अध्यक्ष बने।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय राष्ट्र की एकता और अखंडता के प्रबल समर्थक थे। इसीलिए अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को दिये गये विशेषाधिकारों के वे सख्त खिलाफ थे। यही नहीं उन्होंने संविधान में शामिल किये गये अनुच्छेद 370 को राष्ट्र के लिए घातक बताया था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रारम्भ से ही कश्मीर नीति पर जवाहरलाल नेहरू की साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की नीति का विरोध किया। 1944 में दिल्ली में हुए पंचम आर्य महासभा सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुये डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने साफ कर दिया था कि आजादी के बाद भारत की एकता और अखंडता को कायम रखना बहुत ही महत्वपूर्ण चुनौती होगी।
दरअसल, आजादी के बाद 1948 में भारत में विलय के बाद जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा और अधिकार दिये गये थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आजादी के बाद अखंड भारत में जम्मू कश्मीर की इस स्थिति को मानने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं थे। जम्मू-कश्मीर की इस विशेष स्थिति का विरोध करते हुये डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने “एक देश में दो निशान, एक देश में दो संविधान और एक देश में दो प्रधान नहीं चलेंगे” जैसा विख्यात नारा दिया। अनुच्छेद 370 के तहत संविधान में जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार प्राप्त था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस विशेषाधिकार का विरोध जीवन भर करते रहे और उन्होंने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को “भारत के बाल्कनीकरण” की संज्ञा दी। भारत के पूर्ण एकीकरण के अपने महत्तम उद्देश्य को स्पष्ट करते हुये अगस्त 1952 में जम्मू में हुई विशाल रैली में उन्होंने कहा कि ”या तो आपको भारतीय संविधान प्राप्त करवाऊंगा या फिर इस उद्देश्य के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।”
जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलयन के अलावा एक और विषय था, जिसकी ओर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पूरे भारत का ध्यान खींचा। दरअसल, जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की सरकार से वहाँ का दूसरा सबसे बड़ा भाषाई समुदाय डोगरा अत्यंत त्रस्त था। डोगरा समुदाय के सम्मान और अधिकारों के लिये प्रेमनाथ डोगरा की अगुआई में प्रजा परिषद पार्टी पहले से ही संघर्ष कर रही थी। कई दस्तावेजों से यह साबित होता है कि शेख अब्दुल्ला चाहता था कि सारे डोगरा कश्मीर छोड़ कर चले जाएं और अपनी जमीन और घर-बार उन लोगों (मुसलमानों) के लिये छोड़ जाएं जिन्हें शेख अब्दुल्ला अपना समझते थे। यह साम्प्रदायिक भेदभाव और उत्पीड़न की पराकाष्ठा थी। तत्कालीन इंटेलीजेन्स ब्यूरो के प्रमुख बी एन मलिक ने भी अपनी पुस्तक “माई इयर्स विद नेहरू” (My years with Nehru) में इस तथ्य का विस्तार से उल्लेख किया है।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने डोगरा आन्दोलन को पूरा समर्थन दिया। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि जम्मू-कश्मीर में डोगरा समुदाय के साथ अब्दुल्ला सरकार द्वारा किये जा रहे दुर्व्यवहार और भेदभाव के विषय में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के साथ लगभग छः माह तक लंबा पत्राचार किया। इस पत्राचार में उन्होंने उनसे डोगरा समुदाय के उत्पीड़न और दोयम दर्ज़े के विषय में संज्ञान लेने का आग्रह किया। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आस्था को स्पष्ट रूप से दर्शाता है। नेहरू सरकार द्वारा इस विषय में कोई भी कार्रवाई न करने पर उन्होंने स्वयं जम्मू-कश्मीर जाकर स्थिति को समझने और उसे सुलझाने का भी प्रस्ताव रखा। इसपर भी कोई कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर में लागू परमिट व्यवस्था का विरोध करने का निश्चय किया। इस व्यवस्था के तहत जम्मू-कश्मीर से बाहर का कोई भी व्यक्ति बिना परमिट लिये जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता था।
इस व्यवस्था के विरोध में उन्होंने मई 1953 को बिना परमिट लिये जम्मू-कश्मीर जाने की योजना बनाई। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी 8 मई, 1953 को सुबह 6:30 बजे अपने समर्थकों के साथ पंजाब के रास्ते जम्मू के लिय रवाना हुए। जालंधर से अमृतसर के लिए उन्होंने ट्रेन पकड़ी। 10 मई 1953 को जालंधर में दिये गए अपने वक्तव्य में उन्होंने साफ किया कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने भारत के नागरिकों को वहाँ निर्बाध आने-जाने के अधिकार से वंचित किया हुआ है। इसके अगले ही दिन 11 मई 1953 की शाम को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जम्मू-कश्मीर की सीमा के 2 मील भीतर लखनपुर से गिरफ्तार कर लिया गया। माधवपुर की निगरानी चौकी पार करने के बाद पुल के बीच से ही उन्हें गिरफ्तार कर ऊधमपुर होते हुए श्रीनगर से दूर निशाद बाग के करीब बंदी बनाकर एक घर में रखा गया। बाहरी दुनिया से उनका सम्पर्क काट दिया गया। उन्हें लिखी जाने वाली कई चिठ्ठियों को दबा दिया गया। दोस्तों या रिश्तेदारों से भी नहीं मिलने दिया गया। 22 जून की सुबह से उनकी तबियत बहुत खराब हो गई। इसके बाद उन्हें राजकीय अस्पताल में भर्ती करवाया गया। 23 जून की सुबह नज़रबंदी के दौरान ही विषम परिस्थितियों में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आकस्मिक और असामयिक मृत्यु पर विपक्ष द्वारा लगातार सवाल उठाये गये, और इसकी जांच की मांग पूरे देश से उठने लगी। लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई/सुनवाई नहीं की।
जम्मू-कश्मीर को लेकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की नीति स्पष्ट थी। वह किसी भी हालत में जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने के पक्ष में नहीं थे और इसके लिये उन्होंने “संसद से लेकर सड़क” तक कई आन्दोलन किये। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का मानना था कि पाकिस्तान में स्वतंत्र कश्मीर के नारे लगाकर भारत के भू-सांस्कृतिक मानचित्र को नहीं बदला जा सकता। आम तौर पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जन संघ के संस्थापक और जम्मू-कश्मीर के लिये आंदोलन करने वाले नेता के तौर पर याद किया जाता है। लेकिन उनका व्यक्तित्व इतने तक ही सीमित नहीं था। एक प्रखर राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ उन्होंने आजादी से पहले और आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतंत्रता के बाद भारत के राजनीतिक आकाश में नेहरू और कांग्रेस का एकछत्र वर्चस्व था। इस अधिनायकवादी केन्द्र को चुनौती देने वाले विपक्षी नेताओं में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक प्रमुख नाम हैं। स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को कब्जाने के कारण सर्वसत्तावादी कांग्रेस पार्टी और नेहरू जी की सरकार के सामने विपक्ष की मजबूत और भरोसेमंद आवाज़ डॉक्टरों की तिकड़ी बनी। इस तिकड़ी में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया शामिल थे। दुर्भाग्य की बात है कि इन तीनों की ही मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में हुई। लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है कि इन तीनों ने ही अपने- अपने तरीके से कांग्रेस की हेकड़ी को चुनौती दी।
सर्वाधिक कम आयु (मात्र 33 वर्ष) में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बनने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शिक्षा क्षेत्र में भी आमूल-चूल परिवर्तन करके एक प्रख्यात शिक्षाविद और प्रबुद्ध राजनेता की पहचान बनायी। भारत के राष्ट्रीय निर्माण में उनका एक बड़ा योगदान यह भी रहा है कि उन्होंने पूरे बंगाल को पाकिस्तान में जाने से बचाया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत के विभाजन का प्रस्ताव रखा और कांग्रेस के नेताओं ने उसे स्वीकार कर लिया तब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के साथ पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन करवाया और आधा पंजाब और आधा बंगाल भारत के लिये बचा लिया। आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी अन्तरिम सरकार में उद्योग,वाणिज्य एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में उन्होंने शानदार काम किया। अपने छोटे से कार्यकाल में उन्होंने भारत के औद्योगिक विकास की नींव रखी। उनके कार्यकाल में ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड, ऑल इंडिया हेंडलूम बोर्ड और खादी ग्राम उद्योग आदि की स्थापना हुई। जुलाई 1948 में औद्योगिक वित्त काॅरपोरेशन की स्थापना भी हुई। उनके कार्यकाल में ही चितरंजन लोकोमोटिव फैक्ट्री की शुरुआत की गई। इसके अलावा भिलाई स्टील प्लांट, सिंदरी फर्टिलाइज़र समेत कई और औद्योगिक कारखानों की परिकल्पना और स्थापना उन्होंने मंत्री रहते हुए की थी। जिस स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता की बात आज एकबार फिर कोरोना संकट के दौर में की जा रही है। उसकी परिकल्पना और नींव डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आज से 70 साल पहले रखी थी। इसप्रकार मात्र 52 वर्ष की जीवन-यात्रा में उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति को निर्णायक मोड़ दिया।
लेखक- प्रो. रसाल सिंह जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।
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