आज़ादी से पूर्व के दौर की फ़िल्मी स्त्री- पुनीत बिसारिया

जब कभी हिन्दी सिनेमा में स्त्री की चर्चा आती है तो हमारी नज़रों के सामने दो पैमाने ही अक्सर दीखते हैं। पहला ग्लैमर डाॅल का और दूसरा सर्वांग सौन्दर्य की पर्याय मधुबाला का। पहला माॅडल लगभग शुरूआती दौर से ही सिनेमा का केंद्र बिंदु बना हुआ है तो मधुबाला का सौन्दर्य प्रत्येक सिने तारिका के सौन्दर्य के परख की कसौटी है। अगर स्त्री सशक्तीकरण और जागरूकता की वर्तमान में प्रचलित चर्चा को परे रखकर देखें तो सौन्दर्य और ग्लैमर के प्रतिमान के रूप में स्त्री का अंकन सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि जितनी भी दृश्य कलाएँ हैं, उनको पूर्णता स्त्री और प्रकृति (प्रकृति भी वास्तव में स्त्रीलिंगी है) के चित्रण से ही प्राप्त होती है। सिनेमा, जो वर्तमान समय में दृश्य कलाओं का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है, ने भी स्त्री के सौन्दर्य को तथा उसके प्रतिमान के रूप में एक सर्वांगसौन्दर्यशालिनी स्त्री अर्थात मधुबाला को कल्पित कर लिया किन्तु सिनेमा अन्य दृश्य कलाओं की भाँति सिर्फ बुद्धिजीवी सापेक्ष नहीं है और सस्ता एवं सर्वसुलभ होने के कारण इसकी आम जनता के प्रति जवाबदेही भी है। अतः सिनेमा को समाज में हो रहे बदलावों के वाहक के रूप में भी अपने दायित्वों का निर्वहन करना था, जो उसने कमोबेश अब तक किया भी है।

स्त्रीवादी नज़रिये से हिन्दी सिनेमा को देखें तो हम पाते हैं कि शुरूआती दौर में स्त्रियाँ फ़िल्मों में काम करने को तैयार ही नहीं थीं क्योंकि उस समय इस माध्यम में काम करना उन्हें अच्छा नहीं लगा था। सन 1913 में दादा साहब फाल्के जब पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बना रहे थें तो उस समय कोई महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई और उन्हें अन्ना सालुंके नामक पुरूष से महिला का किरदार अदा करवाना पड़ा था। हालांकि सन 1913 में ही आई अगली फ़िल्म ‘मोहिनी भस्मासुर’ में उन्होंने फ़िल्म जगत की पहली अभिनेत्री के रूप में दुर्गाबाई कामत को पार्वती के रोल में पेश किया। दुर्गाबाई कामत की बेटी कमलाबाई ने इस फ़िल्म में पहले चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में मोहिनी की भूमिका निभाई लेकिन महिलाओं ने इसके बाद भी सिनेमा से दूरी बनाए रखी और तब भारतीय फ़िल्मकारों को विदेश से अभिनेत्रियाँ लानी पड़ीं। इसके लिए उन्हें यहूदियों की ओर देखना पड़ा क्योंकि उस समय का यहूदी समाज अपने ढाँचे में सर्वाधिक माॅडर्न था और उनकी महिलाओं को यहाँ आकर फ़िल्मों में काम करने में कोई दिक्कत नहीं थी। रूबी मायर्स उर्फ सुलोचना, एश्टर विक्टोरिया अब्राहम उर्फ प्रमिला, उनकी बहिन सोफी अब्राहम उर्फ रोमिला, इन दोनों की चचेरी बहिन रोज़ मुस्ली, नाडिया, नादिरा आदि अनेक यहूदी महिलाओं ने हिन्दी सिने पर्दे पर भारतीय स्त्री की छवि को उकेरने का काम किया। ये अभिनेत्रियाँ या तो पारंपरिक भारतीय आदर्श महिला का किरदार निभा रहीं थीं या फिर वैंप बनकर आ रही थीं। इसीलिए प्रारंभिक हिन्दी सिनेमा पर पारसी और यहूदी प्रभाव दिखता है।

यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि हिन्दी फ़िल्मों के शुरूआती दौर में मुस्लिम महिलाओं ने फ़िल्मों में काम करना प्रारंभ किया। ब्रिटिश दौर के सचिन स्टेट (वर्तमान सूरत के आसपास का इलाक़ा) की शहज़ादियों सुल्ताना, ज़ुबेदा और शहज़ादी ने महिलाओं के फिल्मों में काम करने के प्रति हिचक को तोड़ते हुए फिल्मों में काम करना शुरू किया। नर्गिस दत्त की माँ जद्दनबाई ने भी इसी दौर में सिनेमा में पदार्पण किया। मीना कुमारी की माँ इकबाल बेगम उर्फ प्रभावती भी अभिनेत्री और नृत्यांगना थीं जो कामिनी नाम से फिल्मों में काम करने हेतु संघर्षशील थीं। इकबाल बेगम का सम्बन्ध कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर से था। स्वयं असफल होने पर उन्होंने बेटी को सफल अभिनेत्री बनाकर ही दम लिया। जब आर्देशिर ईरानी पहली सवाक फ़िल्म ‘आलमआरा’ बना रहे थे, उस समय उन्होंने ज़ुबेदा को नायिका बनाया क्योंकि ज़ुबेदा मूक फ़िल्मों में अपनी सफलता की पटकथा लिख चुकी थीं। इस तरह हिन्दी फ़िल्मों का प्रारंभिक दौर यहूदी और प्रायः मुस्लिम महिला अभिनेत्रियों के इर्द-गिर्द घूमता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की बहन की पौत्री देविका रानी के फ़िल्मों में पूरी तैयारी के साथ पदार्पण करने से हिन्दी सिनेमा में भारतीय स्त्री की छवि में क्रांतिकारी परिवर्तन आता है। सन 1933 में देविका रानी अपनी फ़िल्म ‘कर्मा’ में पहला चुम्बन देती नज़र आती हैं तो इसके तीन साल बाद वे ‘अछूत कन्या’ फ़िल्म लेकर आती हैं, जिसमें अछूत लड़की और ब्राह्मण लड़के के बीच प्रेम जैसे साहसिक विषय को उठाया गया था। इसमें स्त्री की पारंपरिक मध्यम-उच्चवर्गीय छवि से इतर निम्नवर्गीय स्त्री के संसार को दिखाया गया था। मेरी एन इवांस उर्फ फियरलेस नाडिया की चर्चा किए बगैर हिन्दी फ़िल्मों की महिलाओं की कहानी मुकम्मल नहीं हो सकती। आस्ट्रेलिया के पर्थ में 8 जनवरी 1908 को जन्मीं नाडिया हिन्दी सिनेमा के अमिताभ संस्करण का ‘प्रीक्वल’ कही जा सकती हैं। उन्होंने अपनी फ़िल्मों में ऐसे हैरतअंगेज़ स्टंट किए, जिन्हें देखकर दर्शक दांतों तले अंगुलियाँ दबाने को मजबूर हो जाया करते थे। यह स्त्री का मर्दाना, निर्भीक और आत्मनिर्भर चेहरा था, जो हण्टरवाली, नूर-ए-यमन, मिस फ्रंटियर मेल, डायमण्ड क्वीन जैसी फिल्मों में नज़र आया। यह चेहरा खलनायकों से अकेले लड़ता था, शेर से दो-हाथ करता था, हण्टर चलाता था और लेडी राॅबिनहुड का काम करता था।
सन 1940 में महबूब खान ‘मदर इण्डिया’ का प्रीक्वल ‘औरत’ लेकर आते हैं, जिसे उस दौर की सबसे सफल फ़िल्म माना गया था। यह फिल्म मदर इण्डिया का भांति एक आम ग्रामीण भारतीय स्त्री की दुश्वारियों को सामने लाती है। इस तरह आज़ादी से पहले के सिनेमा की स्त्री की छवि का एक दौर पूरा होता है।
लेखक- डॉ. पुनीत बिसारिया, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी, उत्तर प्रदेश
लखीमपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नवपल्लव’ के मार्च-अप्रैल 2017 अंक स्त्री विमर्श विशेषांक में यह लेख प्रकाशित हो चुका है।
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