नेहा कश्यप की कविताएं

1. मेरी डायरी
मेरी एक डायरी है
बेहद साधारण सी,
मामूली सी दिखने वाली
पर मेरी जान से भी प्यारी
मेरी पुरानी सहेली।
हमेशा, मेरे तकिए के नीचे रहती थी
किसी की नज़र पड़ने पर मैं जगह बदल देती थी।
भाई डायरी को हाथ लगाता तो मस्त एक चपत खाता।
दोस्तों से छुपाती थी…
बचा-बचा कर पन्ने ख़र्च करती थी।
एक आम सी चीज़….
मेरे सुख-दुःख की दवा थी।
एक दिन बिस्तर पर कुछ सूखे गुलाबों की पत्तियां मिली…
जिसे अब तक मैंने डायरी के पन्नों में रखा था…
ढूंढने लगी मैं डायरी ….
मेरी नज़रें बेचैन थीं
अपनी अज़ीज़ को ढूंढ रही थी
देखा तो एक कोने में दुबक कर बेटा डायरी में कुछ लिख रहा था।
मैंने गुस्से से उसे देखा…बेटा सहम गया
धीमी मुस्कान लिए बोला, ’मम्मा मैं कुछ इम्पोर्टेन्ट लिख रहा हूँ।’
पर मेरी डायरी ही क्यूँ?
तुम्हारा वाइट बोर्ड है, इतनी कॉपियाँ हैं
पर मुझे ये डायरी पसंद है
तुम जैसे लिखती हो वैसे मुझे भी लिखना है
टू लाइन्स के बीच में स्माल लेटर्स अच्छे से लिख पाऊंगा
मेरी राइटिंग अच्छी हो जाएगी
तुम्हें मुझ पर गुस्सा नही आएगा
गुस्सा नही आया तो तुम मेरी सबसे अच्छी मम्मा बन जाओगी।’
सबसे अच्छी मम्मा बनने की लालसा ने डायरी पर मालिकाना हक़ छोड़ दिया।
अब किसी पन्ने में ए बी सी डी
तो किसी में नंबर्स
तो कहीं आड़ी-तिरछी ड्राइंग रहती है
जहाँ कभी मैं लिखती थी अपना मन
संजोती थी सपने
पिरोती थी शब्द
दुनिया के अंदर दूसरी दुनिया थी मेरी डायरी
वो मेरे हिसाब की दुनिया थी
जहाँ सारे जोड़ घटाव मैं ख़ुद करती थी
सारे निर्णय ख़ुद लेती थी
उन पन्नों पर कोई मुझे आंकता नही था
उन शब्दों को कोई जांचता नहीं था
सारे मूल्याकन से परे मैं सिर्फ ‘मैं’ होती थी।
2. फ्रॉस्टेड ग्लास
किचन की खिड़की से
दिखता है पड़ोस मेरा
वो पड़ोस जहाँ कभी
भाई-बहन के रिश्ते बनते थे
यार-दोस्त साथ स्कूल जाते थे
कभी -कभी पड़ोस में प्यार भी पनपता था।
अब हलकी सी मुस्कान है या कभी हाय हेल्लो तक बातें हैं
खिड़की से नल खुलने की आवाज़ें हैं,
कभी बच्चे का रोना है।
खिड़की में कोई चेहरा दिख जाए तो
पूरा दिन उस चेहरे को पहचानने में जाना
शायद इसे बच्चे के साथ पार्क में देखा है
शायद ये हैडफ़ोन लगाकर वाक करती है
या शायद इसे सामान ख़रीदते देखा है |
इस शायद में एक उम्मीद है कि मेरे आस-पास कोई रहता है
पर अब खिडकियों पर लग गए हैं फ्रॉस्टेड ग्लास
अब कुछ दिखता नहीं
आवाजें आती हैं अब भी
पर उन आवाज़ों की कोई शक्ल नहीं
अचानक मुझे मेरी माँ से इर्ष्या होने लगी
लगा नोंच फेंकू ये ग्लास
माँ का पड़ोस समृद्ध था
उनके ज़माने में आधा पड़ोस घर पर ही पड़ा रहता था
आज खाने में क्या बनाया से बातें शुरू होती तो पूरी शाम चलती थी
कटोरी की अदला-बदली से लेकर
आलमारी खोल साडी दिखाना
पडोसी के आचार को भी धुप दिखाना
बारिश होने पर पडोसी के कपड़े को अलगनी से उठा लाना
बीमार पड़ने पर खैरियत पूछना
तीज-त्यौहार साथ मनाना
बच्चों का पडोसी के घर खेलना-खाना
बड़े भरोसे का वो समाज था
कितना सहज-सरल जीवन था
प्यार– तकरार से लबालब।
पडोसी बाज़ार में भी मिल जाए तो दुआ सलाम होता था
अब ग़लती से नज़रें मिल जाए तो
बुझी सी मुस्कान होती है
जान-पहचान आमने– सामने नही लेकिन मोबाइल पर खास होती है
सोशल नेटवर्किंग साईट पर
ओह/आह करने वाले पडोसी मिल ही जाते हैं
वहां एक-दूसरे की वाल पर ताका-झाकी है
पर असल ज़िन्दगी में तो वाल ही वाल है
ताका-झाकी की परंपरा अब विलुप्त है
संवेदनाओं की इस मंदी में
आडम्बरों की इस दुनिया में
जीवन के कई पर्दों में से
एक भी आवरण हटाकर देखें
दुनिया पारदर्शी है
फ्रॉस्टेड ग्लास तो बस एक बहाना है।

3. विरोध
माँ! अच्छे से विदा नहीं करोगी मुझे?
एक नए साफ़-धुले कपड़ों में
जो कपड़े मैंने पहने थे वो गंदे हो गए
समाज की नामर्दगी की गंध बस गयी है मेरे कपड़ों में
उस गंध में सांस लेना आसान नहीं।
माँ! क्या तुम अपने हाथों की सुंदर फूलमाला मेरे गले में नहीं डालोगी?
गर्दन पर लगी पट्टियाँ चुभ रही हैं मुझे
क्या इसी चुभन के साथ जाने दोगी मुझे?
माँ ! जिस शारीर को ढकने–छुपाने की नसीहत दी
अब उस शारीर में बचा कुछ भी नहीं
कुछ हलकी सी साँसे थीं वो भी भरी थी
क्या तुम इसी भार के साथ विदा करोगी मुझे ?
माँ! अब ये समाज मुझे कुलटा- कुल्क्छ्नी और न जाने क्या क्या कहेगा
पर तुम उन बातों पर ध्यान मत देना
तुम अपनी यादों में खुबसूरत फूल रखना
जो तुम्हारे आँगन में महकती थी।
माँ! जाने से पहले एक बार तुमसे मिलना था
पर मेरे शरीर को लोथड़ा समझ रातों-रात जला दिया सबने।
पर जलने में ठंडक थी
अपने कष्टों से मुक्ति थी
सुकून इस बात था कि मैं अब उस हिंसक दुनिया की नहीं
जहाँ अफ़वाह है कि इंसान बसते हैं।
पर हकिक़त में इंसानी शक्ल में क्रूर भेड़िये
काफी सफ़ेद, कभी ख़ाकी तो कभी आम कपड़ों में
अपना शिकार ढूंढते है
शिकार करने के बाद एक ही राग अलापते हैं
‘ये तो उसकी ही ग़लती थी।”
माँ! क्या ग़लती थी मेरी
लड़की होने की ग़लती?
मज़लूम होने की ग़लती
पर इतनी भयानक सज़ा
जिसे बयां करने में रूह तक थर्रा जाये।
माँ! तुम रोना नहीं
तुम सोचना मुझे हर लड़की में
अपनी पुरज़ोर आवाज़ उठाना कुछ ग़लत होता देख
जगाना है हमें हमारी हिम्मत,हमारी ताक़त
वरना ये समाज /ये व्यवस्था हमें मुर्दा समझ
हमारे साथ जो जी में आए करता रहेगा
हमें पोस्टरों/नारों में तब्दील कर
मौक़ा-दर-मौक़ा सड़कों पर, सभाओं में, संसद में बस चिल्लाता रहेगा
“आधी आबादी मांगे आज़ादी।’’

4. सलाहियत
मेरी बेटी ने कहा-
मम्मा ऊन के लच्छे उलझ गए …
कैसे गुडिया के बाल बनाऊं?
रखना था करीने से
फिर नहीं उलझते।
रखा तो था ..
कितने भी अच्छे से रखो ये उलझ ही जाते हैं।
ज़िन्दगी भी तो ऐसी ही है कितने भी
सलीके से रखो
उलझ ही जाती है
इसके लच्छेदार धागे
ताने– उलाहने
सुख-दुःख
अभाव-सम्पन्नता
संघर्ष-सफलता
की गिरफ्त में बेचारा मन कभी न कभी
गालों पर ढरक ही जाता है ….
ये सब सोच ही रही थी
तभी खाचक की आवाज़ हुई
देखा तो बेटी ऊन के धागे काट रही
अरे, रे! क्यूँ काट रही?
काटकर बना लूंगी
इसे सुलझाना था
गाँठ के उपर गाँठ हैं
कितना और कैसे खोलूं
नाखून दुखेगें
काटकर …सीधाकर
क्यूं न गुडिया के बाल बना लूँ।
कितनी सलाहियत से अनजाने में
बेटी ने एक बुनयादी बात सिखाई
जीवन में जो गाँठ पक्के से हों
उसे खोलने और खुलने में वक़्त लगता है
जो उलझाने जिद्दी से हों
उसे उधड़ने से अच्छा
उसे कुरेदने से अच्छा
आगे बढ़ना बेहतर है
बच्चों की दृष्टि में आगे बढ़ना
कितना सहज़-सरल है
हम बेवजह अटक कर/फंस कर
वक़्त राएंगा करते रहते हैं।
5. अज़ाब के दिन…
कितने अज़ाब के दिन हैं
काले गुलाब के दिन हैं
जलती लाशों की कतार, नश्तर सी चुभ रही
ये कौन हैं
ये क्यूँ हैं
जिसने लहलहाती धरती को
धधकते अलाव में बदल दिया
बड़े शमशान के दिन हैं
आंसू पीने के दिन है
अपनों की लाशें अपने ही कंधे पर
कोई दूसरे कांधा नही…कोई सहारा नही
बस एक आवाज़ बची है
उठाइये…नहीं तो लकवाग्रस्त होने के दिन हैं
इंकलाब के दिन हैं
सड़क पर पड़े किसानों को पूछता कोई नही
सारे तंत्री-मंत्री को चुनाव से फुरसत नहीं
मेहनत-मशक्कत वालों की तो कोई औकात ही नही
आफ़ताब डूबने के दिन हैं
कितने अज़ाब के दिन हैं।
मुट्ठी भर अनाज के लिए
थोड़ी सी शराब के लिए
बाप बेच देता है अपनी बेटी
बड़ी बेहोशियत के दिन हैं
होशो हवास वालों के लिए
बड़ी शर्मिंदगी के दिन हैं।
पैसों के बटखरे से जब सच तौले जाएँ
खबरे बस एक सनसनी बन जाए
कॉरपोरेट के हाथों देश का व्यवसाय हो जाए
तब रोशनाई बिकने के दिन हैं
बड़े-बड़े खरीदारों के दिन हैं।
सत्ता ने तो कितनों को दीवाना किया
इस दीवानगी ने कितनों को बेगैरत किया
ज़ुल्मों सितम के कितने पन्ने दर्ज किये
राजा ने प्रजा को मौत अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में लपेट का दी है
कई आंगन की चीख-पुकार
कुर्सी को तनिक भी डगमगाती नही
बड़ी हिकारत के दिन हैं
कितने अज़ाब के दिन हैं
काले गुलाब के दिन हैं।
6. ग़ज़ल
बड़े मुनाफ़िक़ रहे रिश्ते निभाने में तुम
कम सुनने, बहुत सुनाने में रहे तुम।
कुछ तो टूटा है तुम्हारे अंदर भी
बाजदफा मेरी तरह नीम से कडवे रहे तुम।
बीते लम्हों की तासीर बस इत्ती सी है
कम भूलने, बहुत याद रखने में रहे तुम।
बड़े-बड़े मसयलें हैं इस गम-ए-दहर में
यकीं हैं इंतिहा-ए-कशमकश से निकल आओगे तुम।
बड़ा बेहतर साबित करने की मशक्कत में
हर बार दीद:-ए तर से गिरते रहे तुम।
बड़े मौके दिए ज़िन्दगी ने साथ हँसने के
पर रोने-धोने की आदत से मजबूर रहे तुम।
बड़ी मुश्किल से हाथ छुड़ा रहे थे तुम
कितनी बेताबियों से एक साथ गुज़र रहे थे तुम।
नेहा कश्यप