यह अमृत कहां से आता है जो शेक्सपियर को बचाता है – प्रियदर्शन

वह कौन सा अमृत है जिसे पीकर शेक्सपियर अपने देहत्याग के 400 साल बाद भी मृत्यु को अंगूठा दिखा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर अंग्रेज़ी की जानकार दुनिया 400 साल से लगातार खोज रही है और इसके इतने सारे और परस्पर अंतर्विरोधी उत्तर हैं कि हर उत्तर अधूरा जान पड़ता है। कहीं यह प्रसंग पढ़ा था- फिलहाल इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि का कोई तरीक़ा मेरे पास नहीं है- कि टॉल्स्टॉय शेक्सपियर के नाटक ‘किंग लीयर’ का रूसी में अनुवाद कर रहे थे। किंग लीयर का अंत देखकर वे सिहर गए। उन्होंने अपने अनुवाद में राजा को बचा लिया। दरअसल किंग लीयर में वे अपनी छवि देखने लगे थे। तो शेक्सपियर का एक गुण तो यह था – मानव स्वभाव और विवेक पर ऐसी अचूक पकड़ कि उनके किरदार अपनी सुदूर-अजनबी भाषा और पोशाक के बावजूद बिल्कुल पाठक के हो जाते हैं। लेकिन अगर किंग लीयर और टॉल्स्टॉय के जीवन को देखें तो दोनों का अंत बड़ा त्रासद और मार्मिक होता है। यानी शेक्सपीयर ने किंग लीयर- और इस लिहाज से- टॉलस्टॉय के लिए जो नियति तय कर दी थी- टॉल्स्टॉय अपने लेखकीय प्रयत्न के बावजूद उससे बच नहीं पाए।

असल में शेक्सपियर को समझते हुए हमें जिंदगी और साहित्य दोनों की कई गुत्थियां समझ में आती हैं। हम सब कहते हैं कि साहित्य ज़िंदगी का आईना होता है, लेकिन यह वाक्य बोलते हुए हम इसके वास्तविक अर्थ से लगभग अनभिज्ञ होते हैं। क्योंकि ज़िंदगी इतनी सारी गुत्थियों से भरी होती है- वह कई सरलताओं और जटिलताओं का ऐसा अचूक मेल होती है- उसमें इतनी सारी परतें होती हैं कि साहित्य का कोई भी आईऩा उसे ठीक-ठीक पकड़ नहीं पाता। जो साहित्य इस जिंदगी के बहुत करीब जाता है, उसके अनदेखे-अनछुए पहलुओं पर रोशनी डालता है, उसे उसके अंधेरे कोनों से निकाल कर बाहर लाता है, वही बड़ा साहित्य होता है। शेक्सपियर यही काम करता है।

उसके पास एक जादुई टॉर्च है। उसकी रोशनी एक तरफ बहुत विराट दिखने वाली ज़िंदगियों के बहुत मामूली पक्षों पर पड़ती है तो दूसरी तरफ़ बहुत मामूली दिखने वाले लोगों के बहुत असाधारण पक्षों को रोशन कर डालती है। उसके यहां निरे शुद्धतावादी आग्रहों से राजपाट चलाने की कोशिश कर रहे मंत्री बड़ी तुच्छ सी दैहिक कामनाओं में लीन पाए जाते हैं और वेश्याओं का एक दलाल यह देखकर परेशान हो सकता है कि एक सीधे-सादे आदमी के साथ अन्याय हो रहा है (संदर्भ मेजर फॉर मेजर)। उसके यहां ही ऐसे दुस्साहसी खलनायक मिल सकते हैं जो बेहिचक स्वीकार करें कि ‘मैं जो हूं वह नहीं हूं’ और जो बस बुराई के लिए किसी की बुराई चाहें (ऑथेलो का इयागो)। मानवीय करुणा को कानूनी शर्तों में बंधे न्याय से बड़ा समझने की दृष्टि (मर्चेंट ऑफ वेनिस- पोर्शिया) देकर शेक्सपियर वह रास्ता खोलते हैं जिसका इस्तेमाल चार सदी बाद जातिगत हिंसा के बाद सामुदायिक मेलमिलाप की कोशिशों में देखा जा सकता है।
ज़िंदगी के तूफ़ानों में खोई हुई पहचानों का खेल तो शेक्सपियर के नाटकों में इतनी तरह से और इतनी बार खुलता है कि वह अपनी सारी कौतुकताओं के बावजूद एक उत्तर आधुनिक भाष्य रचने का आमंत्रण देता है। वह अनायास दुनिया भर के कलासाधकों को यह न्योता देता है कि वे आएं और उसकी कहानियों को नए सिरे से रचें। गुलज़ार उसके ‘कॉमेडी ऑफ एरर’ को उठाकर ‘अंगूर’ जैसी दिलचस्प फिल्म बना डालते हैं और हबीब तनवीर ‘मिडसमर्स नाइट्स ड्रीम’ का एक अलग कल्पनाशील देसी भाष्य ‘कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना’ जैसे नाटक में तैयार कर देते हैं। इन सबसे अलग और अनूठा काम विशाल भारद्वाज करते हैं जो शेक्सपियर की तीन महानतम त्रासदियों, ‘मैकबेथ’, ‘’ऑथेलो’ और ’हैमलेट’ को ‘मक़बूल’, ‘ओंकारा’ और ‘हैदर’ जैसी तीन ऐसी अभिनव फिल्मों में ढाल देते हैं जो कहीं से अभारतीय नहीं लगतीं।
अगर ध्यान से देखना शुरू करें तो हमारे पूरे सांस्कृतिक जीवन पर, हमारे सभ्यतागत कार्यव्यापार पर शेक्सपियर की छाप इतनी गहरी और इतनी व्यापक है कि लगता है, शेक्सपियर जैसे हमारी चेतना का हिस्सा हो गया हो, हमारे मानसिक विकास में घुलमिल गया हो। ज़िंदगी को रंगमंच और ख़ुद को कठपुतलियां मानने की युक्ति हो या जुड़वां भाइयों के बिछड़ने की दास्तानें हों, पिता और बेटियों के आपसी विश्वास की परीक्षा हो या प्रेम की उदात्त गहराई, दोस्त के धोखे को ब्रूटस से जोड़ने का चलन हो या नाम में क्या रखा है जैसी तजबीज- लगता ही नहीं, शेक्सपियर हमसे बाहर का है।
डेनमार्क की सड़ांध में हमारे हिस्से की सड़ांध दिखती है और उसकी शोकांतिकाएं हमारी नियति मालूम होती हैं। यह ज़िंदगी की सुंदरता और विरूपता को, उसके सीधेपन को और उसकी चालाकी को, उसमें निहित प्यार को और उसी के भीतर छुपी नफ़रत को, और इन सबसे मिलकर बनने वाली विडंबना को, इश्क के नमक और जुनून के ज़हर को- इस तरह पकड़ता और लिखता है कि उसकी कलम हम सबकी ज़िंदगियों का आईना हो जाती है। हम सब अपने भीतर झांकने लगते हैं। बेशक, शेक्सपियर की वैश्विक पहचान को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की मदद मिली। लेकिन वह ब्रिटिस साम्राज्य में पैदा नहीं हुआ था। उसने जिस अंग्रेज़ी में लिखा, उसका कोई मानकीकृत स्वरूप भी विकसित नहीं हुआ था। शेक्सपियर किन्हीं शास्त्रीय अर्थों में विद्वान या अध्येता नहीं था। दरअसल यह शेक्सपियर का लोकतत्व है जो उसमें एक अनूठी चमक भरता है और उसे विश्वजनीन स्वीकृति दिलाता है।
शेक्सपियर जो कहानियां कहता है, वह सुनी हुई लगती हैं, लेकिन वह इतने अनूठे ढंग से कहता है कि कहानी बदल जाती है, किरदार बदल जाते हैं और परिवेश भी बदल जाता है। अंग्रेजी के अध्येताओं के लिए यह परिचित स्थापना है कि शेक्सपियर ने ग्रीक त्रासदियों के मूल स्वभाव को बदला। ग्रीक त्रासदियों में इंसान नियति के हाथ का पुतला दिखाई पड़ता है। लेकिन शेक्सपियर के किरदार नियति को पीधे धकेलते हैं और अपनी नियति ख़ुद गढ़ते हैं- ‘कैरेक्टर इज़ डेस्टिनी’- इन्हीं से उनकी शोकांतिकाएं भी बनती हैं, उनकी कॉमेडी भी। यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि कौन सा साहित्य टिकाऊ होता है? इस सवाल के भी कई जवाब हो सकते हैं। लेकिन असली जवाब यही है कि जिस साहित्य में ज़िंदगी अपनी पूरी रगड़ के साथ दिखे और इसके बावजूद उसकी आभा और गरिमा की चमक कम न हो, उसे पीढ़ियां पढ़ती जाती हैं – उसका अपने-अपने ढंग से अर्थ निकालती जाती हैं। लेखक भी उसी साहित्य को जैसे बार-बार रचते हैं। इस ढंग से देखें तो पामुक हो या मारखेज- दोनों के भीतर एक शेक्सपियर हिलता-डुलता दिखता है- और उन कई कवियों के भीतर भी जिनके यहां मनुष्यता की प्रखरतम आभा दिखती है। दरअसल यह अमृत नहीं, ज़िंदगी का ज़हर पीने का साहस है जिसने शेक्सपियर को बचाए रखा है।
प्रियदर्शन प्रख्यात पत्रकार, कवि और लेखक हैं ।
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