रंजना जायसवाल का व्यंग्य- “मारे गए गुलफाम”

सदी के महानायक ने लगभग दो दशक पहले सूट-बूट पहिन एक देहाती गाने को झोल-झाल करके मेरा मतलब रीमिक्स करके बड़े ताम -झाम के साथ मार्किट में उतारा। गाने के बोल थे …एक रहिन इर एक रहीं फत्ते। इर जी वही करते थे जो सारी दुनिया करती थी। सच पूछिए तो हमारे जीवन मे भी एक इर जी थे…इर मतलब वेद प्रकाश चतुर्वेदी। चतुर्वेदी जी का जन्म उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर में कुलीन संभ्रांत ब्राह्मण में हुआ। भगवान जाने ये ग्रहों का फेर था या फिर उनकी बुद्धि का, चतुर्वेदी जी को इस बात की गलतफहमी थी उनका जन्म तो बस “भारतीय प्रशासनिक सेवा” के लिए ही हुआ है। उनके शहर के दो-चार महानुभाव भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत थे। न जाने क्यों उन्हें अपने नाम को लेकर ये खुशफहमी थी कि साक्षात चारों वेदों का प्रकाश पुंज उनमें समाहित है। उन्हें प्रशासनिक अधिकारी बनने से कोई माई का लाल नहीं रोक सकता।
कॉन्फिडेंस इतना कि शरीर के हर हिस्से से फूट-फूट निकल रहा था। सुना था उन्होंने इसी कॉन्फिडेंस के तहत अपना जीवन परिचय भी लिख डाला था। भविष्य में वो प्रशासनिक अधिकारी तो बन ही रहे है तो ऐसी स्थिति में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाना तो स्वभाविक और आम बात होगी। इसलिए पहले से ही जीवन परिचय लिखकर रख ले जिससे भविष्य में बस रेडीमेड बॉयोडाटा धीरे से सरकना पड़ेगा….बार-बार लिखने का झंझट भी न रहे…असल मे उन दिनों फोटो कॉपी मशीन भी नहीं आती थी। चतुर्वेदी जी करते भी तो क्या….पर भई मानना पड़ेगा ऐसे कॉन्फिडेंस को… ऐसा कॉन्फिडेंस भगवान सबको दे पर किस्मत…???
हाँ तो चतुर्वेदी जी आँखों में बड़े-बड़े सपने लेकर इलाहाबाद की तपोभूमि की ओर निकल गए। उस वक्त प्रयागराज इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था। लोगों को मानना था कि जिसने इलाहाबाद की पवित्र धरती के आगे मत्था टेका लिया उसका कल्याण होना तो तय है। चतुर्वेदी जी भी कल्पना के पंख लगाए दिन-रात लाल बत्ती और सलाम ठोंकते कर्मचारी गण के बीच विचरने लगे। माथे पर तिलक,सर पर चोटी और जनेऊ धारण किए चतुर्वेदी जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला भी ले लिया। विज्ञान संकाय के बोर्ड के नीचे खड़े-खड़े चतुर्वेदी जी हमेशा सोचते एक दिन देश के सभी अखबारों में मोटे-मोटे अक्षरों में उनकी यशोगाथा लिखी जाएगी और दसों दिशाओं में उनका यशोगान होगा।
पर चतुर्वेदी जी ये नहीं जानते थे कि बहुत कठिन है डगर पनघट की…कुलीन सम्भ्रान्त परिवार में जन्में हमारे चतुर्वेदी जी के पिताजी ने उन्हें इलाहाबाद पढ़ने भेजने के लिए अपनी तीन बीघा जमीन तक बेंच डाली थी। “कित्ता समझाए थे बचुवा को…तुम्हारी बहिन हिमालय की तरह बढ़ी जा रही है उसका शादी-ब्याह भी करना है। यही आस-पास दाखिला ले लो या हमारे काम में हाथ बटाओं “… पर लाल बत्ती का सायरन चीख-चीख कर उन्हें पुकार रहा था। चतुर्वेदी जी भी गलत नहीं थे, आखिर सपने देखने में हर्ज ही क्या है। उन्होंने हमें हमेशा यही बताया था कि उनके पिता श्री अपने इलाके के प्रकाण्डय पंडित हैं। दूर-दूर से लोग उनसे हाथ विचरवाने आते है। देश- विदेश में उनका नाम है …उनकी भविष्यवाणी कभी गलत नहीं होती और हम निरा बेवकूफ उनकी बात पर भरोसा किये बैठे थे जब घर मे ही बीबीसी बैठा है तो प्रशासनिक अधिकारी बनना तो तय है। हम तो सोचते थे कि पण्डित जी कान पकड़ कर ग्रहों को अपने हिसाब से बेटे की कुंडली में लाकर बैठा देंगे। अब हमें क्या पता था कि चतुर्वेदी जी के पिताजी ही उनकी कुंडली मे कुंडली मारकर बैठ जाएंगे।
वैसे देखा जाये तो चतुर्वेदी जी को भी क्या पता था कि चतुर्वेदी जी ये सब जो रायता फैला रहे हैं उनको ही भारी पड़ेगा और ऐसा भारी पड़ेगा कि समेटे नहीं समेटा जाएगा। चतुर्वेदी जी के पिताजी एक छोटे से शहर के छोटे से पंडित थे।सत्यनारायण की कथा और लीलावती कलावती की कथा बाँच-बाँच परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। बाप-दादाओं की छोटी सी जमीन थी, पण्डिताइन बड़ी सन्तोषी स्वभाव की थी।…चतुर्वेदी जी के सपनें को पूरा होने में कही न कही पंडित जी ही बाधक बन रहे थे। उनके बचुवा मूल में पैदा हुए थे… सुना है मूल वाले बच्चे बड़े जिद्दी होते है। शनिचर उनके सर पर सवार रहता है, कोई बात पूरी न हो आसमान सर पर उठा लेते है। दुनिया भर के घर में पूजा-पाठ करने वाले पंडित जी से न जाने अपने ही घर में कैसे चूक होगी।बचुवा तीन बीघा जमीन बिकवा कर माना और चल दिया भगीरथ प्रयास के लिए खैर…
चतुर्वेदी जी सपने की तरफ बड़े आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहे थे कि इस सर जमीन पर भारतीय प्रशासनिक सेवा में उत्तीर्ण होने के बाद ही वापस लौटेंगे। हाय री किस्मत! उनके सपनों पर ऐसा तुषारापात हुआ कि पूछो मत। इलाहाबाद में अचानक आँसुओं की सुनामी आ गई। जो सुनता वह चतुर्वेदी जी के कमरे की तरफ भागता… ये तो बाद में पता चला कि वो चतुर्वेदी जी के हितैषी नहीं थे बल्कि चुटकी लेने के लिए ही पहुँचते थे। ये विद्यार्थियों की कौम भी न… बस पूछो मत।
बी एस सी के पहले ही साल चतुर्वेदी जी धुँवाधार नम्बरों से लुढ़क गए और ऐसे औंधे मुंह गिरे कि उठने का भी होश नहीं रहा। जिंदगी ने उन्हें छटपटाने का भी मौका नहीं दिया, डर के मारे इम्प्रूवमेंट पेपर देने की भी उनमें हिम्मत न रही।
बिना पारो के देवदास सरीखे वो विश्विद्यालय के गलियारों में इधर-उधर भटकते हुए दिखाई दे जाते।उनकी दशा उस पेपर की तरह हो रखी थी जो उड़ना तो बहुत चाहता है पर उस पर भारी सा पेपरवेट रखा हो।पतझर के सूखे पत्ते से इधर-उधर डोलते चतुर्वेदी जी की दशा हमसे देखी नहीं जा रही थी वैसे भी हम थोड़ा विनम्र और सहृदय व्यक्ति है पर इस बात का हम में तनिक भी घमंड नहीं है। ब्राह्मण परिवार का लड़का …माँ-बाप ने कितने अरमानों के साथ पाला होगा कही कुछ कर धर लिया तो ब्रह्म हत्या का पाप कौन लेगा।
हम सोच लिए थे अब कुछ भी हो जाये, प्रशासनिक अधिकारी बनने का उनका भूत उतारना ही होगा। अब कुछ भी हो जाये यू पी एस सी भवन की तरफ पैर करके भी उन्हें सोने भी नहीं देंगे। भाई पालना है तो कुत्ता पालो, बिल्ली पालो, गाय पालो पर गलतफहमी… गलतफहमी मत पालो। अरे भाई! बकरी पालने की औकात नहीं है ऐरावत पालने के सपनें देख रहे हो। सपने देखने से पहले एक बार तो सोचना था न…आखिर किसी तरह ठेल-ठाल के उन्हें कला संकाय भेजा गया और गिरते -पड़ते, दौड़ते-भागते चतुर्वेदी जी ने स्नातक के अन्तिम वर्ष की परीक्षा भी दे दी…इस दौरान चतुर्वेदी जी एक बार भी अपने शहर नहीं गए। बाप तो बाप ही होता …चतुर्वेदी जी का मोह उन्हें इलाहाबाद तक खींच लाता। इस दौरान मान्यवर पिता श्री को ही बोलते देखा गया पर चतुर्वेदी जी मानो मुँह में दही जमाये बैठाए रहते । शायद वो उस सदमे से उबर नहीं पाए थे वो तो बाद में पता चला कि पिताश्री डेढ़ सौ किलोमीटर धक्का खाकर बचुवा के दर्शन करने नहीं अपनी खुन्नस निकालने आते थे और हम समझते रहे कि बचुवा सदमे के कारण आज तक असफलता के गलियारों में ही घूम रहे हैऔर इस वजह से पिता जी के सामने उनके बोल नहीं फूटते।
हम थोड़ा ठीक-ठाक परिवार के थे ,परिवार के दबाव में इलाहाबाद से ही आगे परास्नातक करने की भी रणनीति तैयार कर लिए…सोचे जब तक परीक्षाफल आता है तब तक कुछ दिन घर घूम आये।सभी मित्रों की भी यही राय थी। शायद हमारा दाना-पानी अभी इलाहाबाद में और भी बदा था। चतुर्वेदी जी के पास अब कोई रास्ता नहीं था। मित्रों के दवाब में उन्होंने भी अपना बोरिया-बिस्तर बांधा और चल दिये अपनी जन्मभूमि की ओर …मित्रों ने भरी आँखों से ऐसे विदाई दी जैसे उनकी अंतिम विदाई हो। चार अदद कपड़े,एक घिसी अटैची और पुरानी किताबों का गट्ठर बांधे शर्माते-सकुचाते जब उन्होंने अपनी मातृभूमि पर कदम रखा यक़ीन मानिए सुनाई तो नहीं दिया पर लोग कहते घण्टे-घड़ियाल बज उठे,घर के पूत के चरण-कमलों से धरती पवित्र हो गई। लोग भी न कैसी-कैसी अफवाह उड़ा देते है। पण्डिताइन थाल सजाए अपने बुढ़ापे की लाठी के स्वागत के लिए द्वार पर खड़ी थी। सुरती ठोकते पण्डित जी तीन बीघे जमीन के दर्द को अभी भूले नहीं थे। खैर लड़का घर आया था, भगा भी नहीं सकते थे…
उन दिनों मध्यमवर्गीय परिवारों में एक चलन था बच्चों की पुरानी किताबें सम्भाल कर रखी जाती थी, पीछे वाली खेप जो अभी लाइन में है वो भी उन किताबों का लुफ़्त उठाती थी।यहाँ तक की चतुर्वेदी जी के कैनवस के जूते भी चाचा के बेटे को दे दिए गए…छोटे साहब का पैर सात नम्बर और चतुर्वेदी जी का पैर आठ नम्बर का था पर सुघड़ पण्डिताइन ने रुई भर-भरकर उसे सात नम्बर का बना दिया। अब बारी आई किताबों की पण्डिताइन ने चतुर्वेदी जी को आवाज लगाई ….”बचुवा पिछले साल की किताबें भी छटवा लो ,जो काम की हो रख लो बाकी सोनू के बेटवा के काम आ जाये।” प्रभु की माया प्रभु ही जाने…किस्मत तो वैसे ही चतुर्वेदी जी की चुटकी ले रही थी। पता नहीं क्यों भगवान जी भी नहा-धोकर उनके पीछे पड़ गए थे।
पण्डित जी कही से घूमते-घुमाते रण स्थल मेरा मतलब कमरे से ही है जो थोड़ी ही देर में रण स्थल में तब्दील होने वाला था,में पहुँच गए। चतुर्वेदी जी की फूटी किस्मत पिताजी को देख चतुर्वेदी जी धीरे से कमरे से सरक लिए…पण्डित जी पूत के इस व्यवहार से आहत हो गए।। “लक्षण देख रही हो सपूत के ताड़ की तरह लंबे हो गए पर अक़्ल तनिक भी नहीं …ये नहीं कि माँ अकेले जूझ रही है ,जरा मदद कर दें।” पत्नी मोह से पीड़ित पण्डित जी पण्डिताइन का हाथ बटाने बैठ गए । हाय री फूटी किस्मत…उन किताबों के बीच कुछ साल पहले देवदास बने चतुर्वेदी जी की कुछ निराशा और आशा के बीच डूबती-उतराती रचनाओं के बीच जीवन परिचय मिल गया…जो जीवन परिचय कम जन्मकुंडली ज्यादा था और शायद राहु, केतु शनि ने भी एक साथ चतुर्वेदी जी के जीवन मे घुसपैठ कर ने की ठान ली थी। शुरुआत की काफी पंक्तियाँ नीले पेन से और आखिर की चंद पंक्तियाँ लाल स्याही से लिखी हुई थी। शायद परमपिता परमेश्वर को आने वाले खतरे का भान था और वो उन्हें चेता भी रहे थे पर…
कागज का मज़मून कुछ इस प्रकार था….वेद प्रकाश चतुर्वेदी जी का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में शुभ संवत २०३२ शक १८९७ चैत्र मास के कृष्ण पक्ष तृतीय शुभ तिथि गुरूवासरे चित्रा नक्षरे में हुआ। वृश्चिक लग्न तुला राशि में जन्म लेने वाले वेद प्रकाश चतुर्वेदी जी का राशि नाम राम है। बाल्यकाल से ही वो काफी सरल , सहज और मृदभाषी प्रवृत्ति के है। माँ सरस्वती की विशेष अनुकम्पा और कृपा दृष्टि इन पर रही। बचपन से ही आप ओजस्वी वक्ता और विलक्षण प्रतिभा के धनी रहे।इनके कर्मठता के सभी कायल है।
आपके पिता शहर के साधारण ज्योतिषाचार्य और माँ धार्मिक प्रवृत्ति की महिला रही। जो अपने आप में ही मस्त रही। आचार, मुरब्बा, पापड़ से वो कभी ऊपर न उठ पाई। माता-पिता की अनदेखी के कारण ही इनका पालन-पोषण ठीक से न हो पाया और इस उभरती हुई प्रतिभा ने अपना दम तोड़ दिया और आप जीवन मे विशेष कुछ कर न सके। सम्भवतः ये पंक्तियां बी एस सी के पहले साल धुंआधार रूप से असफल होने के कारण बाद में लिखी गई थी।
पण्डित जी गुस्से में कांप रहे थे ….छाती पर जवान लड़की बैठी है और बचुवा अपने सपने को पूरा करने के चक्कर मे तीन बीघा जमीन बेंच दिए और उस पर से तुर्रा ये की इनका लालन-पालन ठीक से नहीं हुआ।पण्डित जी ने आंव देखा न ताव चप्पल निकली और वो सुताई करी कि चतुर्वेदी जी इलाहाबाद नक्शे में कहाँ है ये भी भूल गए। पण्डिताइन उस दिन को कोसने लगी जब बचुवा पैदा हुआ। सुना है आजकल चतुर्वेदी जी अपने पिताजी के साथ सत्यनारायण की कथा बाँच रहे है और जजमानों को कलावा बांधने का काम करे है।ईश्वर सबका भला करे बस शुरुआत हमसे करे…
डॉ. रंजना जायसवाल की दिल्ली एफएम गोल्ड ,आकाशवाणी वाराणसी और आकाशवाणी मुंबई संवादिता से लेख और कहानियों का नियमित प्रकाशन, पुरवाई, लेखनी, सहित्यकी, मोमसप्रेशो, अटूट बन्धन, मातृभारती और प्रतिलिपि जैसी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ऐप पर कविताओं और कहानियों का प्रकाशन, अट्टाहास, अरुणोदय, अहा जिंदगी, ककसाड़, सोच विचार, सृजन, संगिनी, सरिता, गृहशोभा, सरस सलिल, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक जनप्रिय इत्यादि राष्ट्रीय स्तर की पत्र -पत्रिकाओं से लेख, कविताओं और कहानियों का निरंतर प्रकाशन। आप उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में रहती हैं। Email- ranjana1mzp@gmail.com.
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