अनिता कपूर की कविताएं

1 माँ नहीं रही
माँ तो गई
अब मकान भी पिता को
अचरज से देखता है
मानो संग्रहालय होने से डरता है
उसने खंडहरों में तब्दील होते
मुहल्ले के कई मकानों को देखा है
माँ तो चली गयी
अब मकान खुद ही
ढहने लगा है
उसे मंज़ूर है खुद का बिलखना
पर वो पिता को ढहते नहीं देख पाएगा
भाई अब तो पिता को ले जाएगा
माँ नहीं रही
कौन उठाये खिलाये
रातों को चाँद दिखा
बीती पूर्णमासियों को जिलाये
अब तो बस हर रात अमावस्या हुई
माँ इस घर से गई
घर खड़ा है
रहने वाले बिखर गए
बेटियाँ वापस ससुराल गयीं
भाई ने कहा
बेचो इसे
पिता हठ में
यादों की ईंटें
मेहनत कमाई से
मैंने बनाया
यहीं है रहना अंत तक
असमंजस में हम सब
माँ तो चली गई
बच्चे इस मज़बूत दुकान को
मॉल की छोटी छोटी दुकानों में
बंटना नहीं देखना चाहते
इसलिए मज़बूत दुकान को
भाई ले गया
और माँ की तुलसी
माँ के कमरे की दीवार की ख़ुरचन
मैं विदेश ले आयी हूँ
आज माँ मेरे साथ है
तसल्ली है दुकान आज भी है
2 नक्शा
मैं तुम्हें कोई नक्शा नहीं देना चाहती,
क्योंकि आकाश का कोई नक्शा नहीं होता
आकाश में पगडंडियाँ भी नहीं होती
राजपथ तो दूर की बात है
आसमानों में उड़ते पक्षियों के साक्षी,
परों और पैरों के चिह्न नहीं मिलते
बुद्ध, जीसस, मुहम्मद या राम के भी
कोई चिह्न नहीं छूटे आकाश में
आकाश तो वैसे का वैसा ही है, खाली -सा
तुम भी उड़ के देख तो लो
उड़ तो लोगे, पर कोई चिह्न नहीं छोड़ पाओगे
अच्छा ही है कि, चिह्न नहीं छूटते
वरना लोग नकलची होते
तुम्हारी पहचान खत्म हो जाती
लोग तो दूसरों के पैरों पर पैर रख कर
चलना चाहते हैं
अपनी आत्मा को न तराश कर
दूसरों की आत्मा की भी कार्बन कॉपी बनना चाहते है
उससे फिर जीवन में धारा कैसे आए
नयी आत्मा का जन्म कैसे होगा?
क्यों न बाहर के आकाश की बात और सीमा
वैज्ञानिकों पर छोड़ दें
लेकिन भीतर के आकाश की कोई सीमा नहीं
भीतरी आकाश अनन्त है
हममें उड़ने की क्षमता
जन्मजात है
फिर भी अनदेखा कर
उड़ना चाहते हैं बाहरी आकाश में
तभी तो घिसटता ही रह जाते हैं
क्षमता और वास्तविकता में मेल नहीं हो पाता
यही हमारा दु:ख है, यही पीड़ा है,
यही हमारा संताप है
जीवन प्रतिकूल हो जाता है
इसीलिए मेरी बात सुनो!
आप जब अपने ही अंतराकाश में विचरेंगे
और पंख फैलाएँगे, वैसे ही आनंद होगा
और खुद का ही विस्तृत आकाश होगा
तथा स्वचित्रित इंद्र्धनुष भी
तब तुम बाहर भीतर
सब कुछ पा जाओएगे
जब, अपने पास आओगे

3 नहीं चाहिए
अब
तुम्हारे झूठे आश्वासन
मेरे घर के आँगन में फूल नहीं खिला सकते
चाँद नहीं उगा सकते
मेरे घर की दीवार की ईंट भी नहीं बन सकते
अब
तुम्हारे वो सपने
मुझे सतरंगी इंद्रधनुष नहीं दिखा सकते
जिसका न शुरू मालूम है न कोई अंत
अब
तुम मुझे काँच के बुत की तरह
अपने अंदर सजाकर तोड़ नहीं सकते
मैंने तुम्हारे अंदर के अँधेरों को
सूँघ लिया है
टटोल लिया है
उस सच को भी
अपनी सार्थकता को
अपने निजत्व को भी
जान लिया है अपने अर्थों को भी
मुझे पता है अब तुम नहीं लौटोगे
मुझे इस रूप में नहीं सहोगे
तुम्हें तो आदत है
सदियों से चीर हरण करने की
अग्नि परीक्षा लेते रहने की
खूँटे से बँधी मेमनी अब मैं नहीं
बहुत दिखा दिया तुमने
और देख लिया मैंने
मेरे हिस्से के सूरज को
अपनी हथेलियों की ओट से
छुपाए रखा तुमने
मैं तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में
खंडित इतिहास की कोई मूर्त्ति नहीं हूँ
नहीं चाहिए मुझे अपनी आँखों पर
तुम्हारा चश्मा
अब मैं अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ाऊँगी
मैंने भी अब
सीख लिया है
शिव के धनुष को
तोड़ना

4 साठ साल की उम्र वालों
साठ साल की उम्र वालों
बचे सालों को समेटना सीख लो
दिल के ज़ख्म छुपाकर रखना
वरना मरहम की चाह में
नमक ही छिड़का जाएगा
साठ साल की उम्र वालों
मुरझाने की तो बहुत वज़ह होंगी
जब मौत का राज़ समझ लोगे
तो जीना भी आ ही जाएगा
साठ साल की उम्र वालों
पुराने दिन तो अब नहीं आने वाले
या तो अपने आप में रहना सीख लो
नहीं तो वृद्ध आश्रम पहुंचा दिया जाएगा
साठ साल की उम्र वालों
कुछ किताबें पढ़ो कुछ लिखने से दिल लगा लो
बाकी दोस्तों के साथ समय बिताया जाएगा
अंत समय आप पहले जायोगे या हम
इसका भी हिसाब दोस्तों से लगाया जाएगा
साठ साल की उम्र वालों
हंसी तुमने बिस्तर के सराहने रख छोड़ी है
बस ज़रा बीच बीच में गुदगुदाते रहा उसे
साठ साल की उम्र वालों
इंतज़ार तो दूसरी ओर कर रहा था पत्थर भी
कि कब राम नदी पार करेंगे
आकर उस पर बैठेंगे और जी उठेगी अहल्या…..
तुम मन वीणा के सोए तार बजने दो
मन दर्पण में झाँक के देखो, साठ साल की उम्र वालों
अपने एकाकी मन को तुम ही आ बहलाते हो?
कौन तुम रातों के प्रहरी जुगनु सा जल जाते हो
साठ साल की उम्र वालों
यह मोह माया तो एक छलावा है सिर्फ
ऊपर तो केवल खाली हाथ ही जाया जाएगा
5 खिड़की
मेरे घर की यह खिड़की…..
मुझे बहुत प्यारी लगती है…..
इस खिड़की की एक विशेषता
इसमे एक अदृश्य दूरबीन जड़ी है
जो संवेदनाओं से बनी है
यह करवा देती है भौगोलिक सैर
नैहर से संदेश लाये नाई सी लगती है
मेरे घर की यह खिड़की……
मुझे मेरे मायका जैसी लगती हैं
मेरे घर की यह खिड़की……
आज भी गीली है इसकी लकड़ी…..
मैंने कल ही निर्भया को रोते देखा
इसी दूरबीन ने दो बच्चियों को
दरख्त से झूलते देखा
और भी बहुत कुछ होते देखा
अपने मन को शर्मसार भी होते देखा…..
यहाँ सुबह की अख़बार तो नहीं मिलती
मेरे अलादीन का चिराग
बिन कहे ही मेरी पीड़ा समझता है
और मेरी दूरबीन के लेंस को हमेशा
चमका कर रखता है…….
सुनते थे तालिबानी मेरे घर से दूर हैं
पर आज मेरे घर की इस खिड़की ने
उन्हे अपने देश के राज्यों में घुसते देखा है
दूरबीन ने बलात्कारियों को भी
शहर-शहर में सूंघते देखा है
कल दूरबीन थोड़ी सी हंसी थी
शायद बोलने भी लगी थी
या न्याय करने वाले के कान खुलने लगे हैं
क्या सच में, हवा में प्रदूषण कण कम हुए है…..
दूरबीन के काँच को पहली बार
सुबह उजली सी लगी है…..
मेरे घर की खिड़की प्रवासी तो है
पर बंदनवार, तोरण, झालर देसी है
इसीलिए तो हमेशा
गीली ही रहती है इसकी लकड़ी
देश से आए बादलों का पर्दा जो है
6 खामियाज़ा
सुनो
जा रहे हो तो जाओ
पर अपने यह निशां भी
साथ ले ही जाओ
जब दोबारा आओ
तो चाहे, फिर साथ ले लाना
नहीं रखने है मुझे अपने पास
यह करायेंगे मुझे फिर अहसास
मेरे अकेले होने का
पर मुझे जीना है
अकेली हूँ तो क्या
जीना आता है मुझे
लक्ष्मण रेखा के अर्थ जानती हूँ
माँ को बचपन से रामायण पढ़ते देखा है
मेरी रेखाओं को तुम
अपने सोच की रेखाएँ खींच कर
छोटा नहीं कर सकते
युग बदले, मै ईव से शक्ति बन गयी
तुम अभी तक अहम के आदिम अवस्था में ही हो
दोनों को एक जैसी सोच को रखने का
खामियाज़ा तो भुगतना तो पड़ेगा
डॉ अनिता कपूर, प्रसिद्ध कवयित्री हैं और कैलीफोर्निया, अमेरिका में रहती हैं. Email: anitakapoor.us@gmail.com Phone: 1-510-894-9570