निर्मला सिंह की पाँच कविताएँ

1 चाँद से उतरकर
चाँद से उतरकर
जो कविता चांदनी बन
बस गई थी मन में
वो अब,
पहाड़ी नदी में बिछी
चिकनी शिलाएँ बन
अपने बदन पर बहते
पानी के अमृत से
कलकल स्वर
पीकर जीना चाहती है!
मन पर अनायास उगी
कँटीली सेवार और काई हटा तन पर,
हरियाली और
कोमल फूल ही फूल
उगाना चाहती है!
मीलों तक —-
धरती पर फैला पीला आंचल
और समन्दर की लहरों का उतावलापन
उसमें कबसे बसा है?
जानना चाहती है!
पर चाहने और होने में
एक वृहत अन्तर है
नदी के दो पाटों को जोड़ता
कठोर लोहे से बना
रेल का विशाल पुल
छूटते ही
छूटने की टीस भर देता है!
मेरी कविता मेरे मन में बसी है
और भ्रमित है!_______________

2..पुष्प का आत्मकथ्य
अभी तो दिन प्रारम्भ ही हुआ है
अपनी व्यथा-कथा स्वयं ही सुनाऊँगा!
सूर्य के ताप से तिलमिलाऊँगा
या…
ठंड के प्रकोप से कुम्हलाऊँगा
मैं नहीं जानता।
बाग में सुबह की सैर पर
चलते-भागते-दौड़ते
भजन गाते लोग-बाग मुझे सराहेंगे, निहारेंगे,
थम कर दो पल ताकेंगे
या…
नोच कर धराशायी कर देंगे?
मैं नहीं जानता।
क्षणभंगुर सा तो जीवन है मेरा
चाहता हूँ, झर-झर कर, उम्रदराज़ हो
क्षीणकाय हो स्वतः ही माटी में समा जाऊँ,
माटी को उर्वर करूँ,
अपने बीज अपनी अगली पीढ़ी के लिए
सहेज जाऊँ, सौंप जाऊँ..
पर..
मैं नहीं जानता
सच में नहीं जानता।
____________
मैं समय हूँ
मैं समय हूँ,
सुन रहा हूँ तुम्हारे आर्तनाद
पर रुक नहीं सकता,
नहीं रुकता!
कृष्ण का सुदर्शन चक्र
मैंने ही बनाया था,
रावण का पुष्पक विमानन
क्षत्रों की आज्ञा से
राम की कुटिया के आगे
मैंने ही उतारा था,
सीता को लक्ष्मण रेखा
मैंने ही पार कराई थी..
तुम करो प्रतिवाद
पर मुझे सब है याद!
मैं समय हूँ
रुकता नहीं हूँ
थकता नहीं हूँ!
पंछियों की उड़ान से लटक
अवरोध की तख्तियां झटक,
ट्रैफिक में थमे हुए
एक जगह जमे हुए
गाड़ियों के बलवान
पहियों पर पैर रख
छलांगे लगा,
पतली गली से निकल जाता हूँ!
मैं समय हूँ
स्वतः ही बीत जाता हूँ!
तुमने ही मुझे अच्छा-बुरा कह
कितने उपमान दे दिये,
सोचो ज़रा..
तुम ही मुझे काटते हो
मैं तुम्हें नहीं काटता!
मैं समय हूँ,
एक बार सीख देता हूँ
पलट कर नहीं आता..
मैं समय हूँ
मुझे गंवाओ मत
वादों में बसा लो
यादों में सम्हालो,
पन्नों पर उतारो
मेरी गणना कर
मौन मनन कर
सहेजकर, सहलाकर
अपना जीवन संवारो!
मैं समय हूँ!

3 . लॉक डाउन
उस दिन
उस पहाड़ी गांव की सुबह
कुछ यूं हुई होगी,
बछिया रंभाई होगी
मेमने मिमियाये होंगे,
सन्नाटा पसरा होगा
कौन दुहे दूध?
गैया बेचैन सी कभी
एक टांग की टेक लगा उठी होगी,
इधर-उधर सिर हिला
फिर धम्म से बैठ गई होगी।
कल्लू बरेदी आया होगा या नहीं?
अब कौन दुहे दूध,
कौन करे दाना-पानी, सानी?
दादी अम्मा परेशान टहल रही होंगी,
परदेस में बैठा इकलौता पोता
परेशान सा जाने क्या क्या सोचता रहा।
फ़ोन भी तो नहीं लग रहा
कैसे उन्हें बताएं लॉक डाउन का अर्थ?
काश! आज दादू होते,
पापा शहीद न हुए होते,
और वह रो पड़ा।

4 . एक टुकड़ा
एक टुकड़ा नींद, ताज़ी निखरी सुबह
हर दरवाज़े रंगोली
आँखों में आश्वासन की बोली,
दिन हँसकर बोला मैं तरोताज़ा हूँ! साथ देना !!
मैंने भी दिन को तौला!
अँजुरी में झिरी ना हो,
कोई बोल बहे ना..
सोचती थी,
सच बुनना कितना सरल है!
सच के धूसर से रंग की
मोटी ऊन के फंदे
सलाइयों पर चढ़ाकर
एक लाइन सीधी एक लाइन उल्टी,
और हर पहला फंदा
बिन बुने उतार कर,
जब बुनना शुरू किया,
तो सीधी-सादी क़स्बे की लड़की सी,
बेरौनक बुनाई तो चल पड़ी —
पर मन को, ऊन में लपेट कर
समझाना पड़ा घड़ी-घड़ी!
फिर, मन को समझाकर
झूठ की रंगीन ऊन के बेल बूटे डाले,
खुशनुमा सी बुनाई फिर चल पड़ी पर,
मैं ही जानती हूँ कि,
अपने ही मन से मैं कितना लड़ी!
एक रंग के इकहरे-दुहरे-सादे से
स्वेटरों ने जो अपनत्व की गर्मी का एहसास दिलाया,
वो गर्मी बहुरंगी दिखावटी स्वेटरों में कहां ?
अब सच की ऊन के गोलों से
मेरी गोद में रखी झोली भरी है,
सोच की नगरी के हर द्वार पर
चहल-पहल की बन्दनवार हरी है!
झूठ की ऊन तोड़-तोड़,
कुतर-कुतर कुछ तो ले गई चिड़िया
कुछ ले गई गिलहरी,
अपना घोंसला बनाने
अपना आशियाना बसाने,
सोचती थी,
सच बुनना कितना सरल है !
सच ही सोचती थी !!
5 . देहरी लाँघने से पहले
सुनो स्वयंवरा
ठहरो ज़रा,
जीवन सरल सहज नहीं होता
प्रेम की अतल
गहराइयों में आकंठ डूबी
तुम, विवेकहीन न होना !
मधुरभाषिणी कोमलांगी
स्वरों की स्वरा
सोचो ज़रा,
पिता की आँखों में
चिंता की छाया है
कैसे न डरे तुम्हारी माँ ?
याद रखना,
कोई भी इन्सान पूर्ण नहीं होता
अपने वर को
तिलिस्मी काँच से मत जांचना
सिर्फ़ एक छोटी सी गिट्टी
काँच को चकनाचूर कर सकती है,
नए जीवन में
अभिमान नहीं स्वाभिमान बसाना
विचारना ज़रा—–
तुम मान बनना
पर,
उसे अपना स्वाभिमान बनाना!
सुनो ज़रा स्वयंवरा —
निर्मला सिंह एक प्रसिद्ध कवि और चित्रकार हैं। आपने अंग्रेज़ी साहित्य में एम ए, टेक्सटाइल डिज़ाइन, प्राणिक हीलिंग, कास्मेटोलोजी एरोमा थेरेपी और योगा में सीनियर डिप्लोमा किया है। पिछले ३० वर्षों से आपकी कविताओं पर आधारित चित्र कला प्रदर्शनी देश विदेश की प्रतिष्ठित कला वीथिकाओं में आयोजित होती रही हैं!