जनमाध्यम के रूप में सिनेमा का विकास – अरुण कुमार

चलते-फिरते चित्रों को देखने की आकांक्षा –
‘सिनेमा’ या ‘चलचित्र’ का सम्बन्ध उन चित्रों से है जो पर्दे पर चलते- दिखाई देते हैं। मनुष्य के मन में प्राचीन काल से ही चित्रों को चलते-फिरते देखने की इच्छा मौजूद रही है. वह समय-समय पर अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए प्रयोग करता रहा है. प्रसिद्ध इतिहासकार बी डी गर्ग ने लिखा है कि ‘लगभग 25 हजार वर्ष पूर्व किसी अज्ञात चित्रकार ने स्पेन के एल्टामिरा की गुफाओं में एक सुअर के कुछ ऐसे चित्र बनाए थे जिसमें एक के बाद एक चित्रों को क्रम से देखने पर वह चलता हुआ प्रतीत होता था।’ यह किसी मनुष्य की चित्रों को चलते हुए देखने की आकांक्षा की प्रथम अभिव्यक्ति थी। ऐसा हो सकता है कि इससे पहले भी मनुष्य ने इस तरह के प्रयास किए होंगे लेकिन सबसे प्राचीन साक्ष्य के रूप में हमें एल्टामिरा की गुफाओं में बने चित्र ही मिलते हैं.
मनुष्य की आँखों की रेटिना पर किसी वस्तु या दृश्य का प्रतिबिम्ब एक सेकेण्ड के सोलहवें भाग तक मौजूद रहता है। यदि चित्रों को सेकेण्ड के सोलहवें भाग के अन्दर रेटिना के सामने एक के बाद एक लाएं तो वे चलते हुए प्रतीत होते हैं. प्रकाश विज्ञान के इस सिद्धांत ने भी मनुष्य की उस आकांक्षा को बल प्रदान किया जिसमें वह चित्रों को चलते हुए देखना चाहता है. इस सिद्धांत से प्रभावित होकर चित्रों को चलते हुए देखने के लिए लगातार प्रयोग किए गए। ऐसा ही एक प्रयोग चर्च के एक पादरी कर्चर ने किया था. कर्चर ने 1664 ई में ‘मैजिक लालटेन’ का आविष्कार किया, जिसके माध्यम से दीवार पर चित्रों के प्रतिबिम्ब उभारे जाते थे.

इन प्रयोगों की श्रृंखला में ‘जोट्रोप’ नामक यंत्र का आविष्कार भी उल्लेखनीय है। यह ऐसा यंत्र था जिसमें एक चर्खा से कई चित्र चिपका दिए जाते थे। जब उस चर्खे को घुमाया जाता था तो ये चित्र चलते हुए प्रतीत होते थे। ‘जोट्रोप’ मूलतः ग्रीक शब्द है जिसमें ‘जो’ का अर्थ है ‘जीवन’ और ‘ट्रोप’ का घूमना। ग्रीक भाषा में इस शब्द का प्रयोग ‘जीवन चक्र’ के अर्थ में किया जाता है। चित्रों में जीवंतता आ जाने के कारण इस यंत्र का नाम ‘जोट्रोप’ पड़ा। इन प्रयोगों की अगली कड़ी में 1833 ई में विलियम जार्ज हॉर्नर नामक व्यक्ति ने ‘शैतान का चक्र’ नामक एक यंत्र का आविष्कार किया। इस यंत्र में एक के बाद एक बहुत से चित्रों को चिपकाकर लपेट दिया जाता था। उसके बाद एक छिद्र से प्रकाश डालकर चित्रों को घुमाया जाता था। सामने की दीवार पर इन चित्रों के जो प्रतिबिंब उभरते थे वे आकार में बड़े और काले होते थे। ये प्रतिबिम्ब शैतान की छाया जैसे लगते थे। इसी कारण हॉर्नर द्वारा निर्मित इस यंत्र का नाम ‘शैतान का यंत्र’ पड़ा।
ऑस्ट्रियाई नागरिक जिमॉन फॉन स्टाम्फर द्वारा निर्मित ‘स्ट्रोबोस्कोपिक डिस्क’ नामक यन्त्र सिनेमा की विकास यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। स्टाम्फर ने ब्रिटिश भौतिक वैज्ञानिक माइकेल फैराडे के एक प्रयोग के आधार पर इस यंत्र को विकसित किया था। माइकल फैराडे अपने एक प्रयोग के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि यदि क्रमबद्ध ढंग से किसी प्लेट को तेज गति से घुमाया जाए तो मनुष्य की आंखों से उसका सही आकलन नहीं किया जा सकता। इसी निष्कर्ष के आधार पर स्टाम्फर ने स्ट्रोबोस्कोपिक डिस्क का आविष्कार किया जिसमें चित्रांकित प्लेट को तीव्र गति से घुमाने पर ये चित्र चलते हुए प्रतीत होते थे।
सन 1839 ई में फ्रांस के लुइस डेग्यूरे ने फोटोग्राफी कैमरे का आविष्कार किया। सिनेमा निर्माण के क्षेत्र में मनुष्य का उस समय तक का यह सबसे सफल प्रयास था. उसके बाद सेन फ्रांसिस्को के एक अंग्रेज़ फोटोग्राफर इडवियर्ड माइब्रिज ने 1877 ई में एक प्रयोग कर सिनेमा के कैमरे के आविष्कार की ओर महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया। माइब्रिज ने एक पंक्ति में 25 कैमरे लगाकर एक भागते हुए घोड़े की तस्वीर खींची। उसने एक धागे से कैमरों के शटर इस तरह बांधे कि जब घोड़ा उन कैमरों के आगे से दौड़ता तो इसके पैरों से धागा टूटता और फोटो खींच जाती। इस प्रक्रिया में घोड़े की 25 तस्वीरें खींची गईं और उन्हें एक साथ रखकर देखने पर घोड़ा दौड़ता हुआ प्रतीत होता था। सिनेमा की तकनीक के आविष्कार की ओर कदम बढाने में यह प्रयोग मील का पत्थर साबित हुआ।
माइब्रिज के प्रयोग के बाद आधुनिक कैमरा बनाने का प्रयास विश्व के कई हिस्सों में चल रहा था, लेकिन सफलता मिली टॉमस एल्वा एडीसन को और उन्होंने अपने आविष्कार के माध्यम से सबको चौंका दिया। एडीसन के इस आविष्कार का नाम था- किनेटोग्राफ. 1891 में एडीसन ने किनेटोग्राफ का पेटेंट कराया, जो उस समय एक विकसित कैमरा था। उन्होंने अपने सहयोगी डिक्सन के साथ एक किनेटोस्कोप बनाया जिसकी सहायता से 35 एमएम चौड़ी पट्टी पर लिए गए चित्रों का प्रदर्शन किया। यह ऐसा यन्त्र था जिसमें 50 फीट लम्बी चलती तस्वीरों को मैग्नीफाइंग लेंस की सहायता से देखा जा सकता है। किनेटोस्कोप में कई विशेषताएं थीं लेकिन इसमें कुछ कमियां भी थीं। एक तो इसके निर्माण में बहुत समय लगता था और दूसरे इसके टूटने की संभावना अधिक रहती थी। एक इंजीनियर जॉर्ज ईस्टमैन ने एडीसन के काइनेटोस्कोप की कमियों को दूर करने का काम किया। एडीसन ने 1896 के अप्रैल महीने में पहली बार 58 फीट लम्बी सेल्यूलाइड फ़िल्म बना ली। सिनेमा के वर्तमान स्वरूप की पहली झलक हमें यहीं मिलती है। काइनेटोस्कोप और सेल्यूलाइड ने मिलकर पूरे विश्व में जादू चलाना शुरू कर दिया। कुछ ही समय में यूरोप और अमेरिका में एडीसन के इस यंत्र की लोकप्रियता बढ़ गयी। इस तरह मूक फिल्मों का दौर शुरू हो गया।

एडीसन के आविष्कार के बाद भी सिनेमा को स्थायी पहचान मिलना शेष था। फिल्में एक मिनट से कम अवधि की होती थीं जिनमें केवल एक दृश्य होता था जो किसी घटना की रिकॉर्डिंग मात्र होते थे। उनमें न तो कैमरा तकनीक के लिए कोई स्थान था और न संपादन की कोई सुविधा थी। इसमें कैमरे को एक स्थान पर स्थिर रखकर रिकॉर्डिंग की जाती थी। दर्शकों के लिए यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं था इसलिए सिनेमा के इस प्रारम्भिक रूप ने भी शीघ्र ही लोकप्रियता हासिल कर ली। इस दिशा में अगली कड़ी के रूप में फ़्रांस के ल्युमियर ब्रदर्स का नाम सबसे महत्वपूर्ण है।
ल्युमियर बन्धुओं ने व्यावसायिक इच्छा से प्रेरित होकर फ्रांस में सिनेमेटोस्कोप के माध्यम से छोटी-छोटी फिल्मों का निर्माण और उनका प्रदर्शन किया। एडीसन के आविष्कारों का उपयोग करते हुए ल्युमियर बंधुओं ने विश्व की पहली फिल्म बनाई. इस कारण ल्युमियर बंधुओं को ‘विश्व सिनेमा का जनक’ कहा जाता है. सिनेमा को आधुनिक रूप में पहुंचाने वाले ऑगूस्त और लुई ल्युमियर नामक इन दोनों भाइयों ने सोचा भी नहीं होगा कि उनका यह आविष्कार बीसवीं सदी की सबसे चमत्कारिक और क्रांतिकारी घटनाओं में से एक होगा। वर्तमान में सिनेमा जिस रूप में मौजूद है उसे यहां तक पहुंचाने के लिए पूरी मानव सभ्यता, संस्कृति और कला सदैव इन फ्रांसीसी व्यक्तियों की ऋणी रहेगी।

ल्युमियर बंधुओं ने 28 दिसम्बर 1885 को पेरिस में पहली बार ‘एराइवल ऑफ ट्रेन’, ‘फैक्ट्री से घर जाते मजदूर’, ‘बगीचे में पौधों को सींचते माली’ आदि चलचित्रों का प्रदर्शन किया था। ये चलचित्र किसी आश्चर्य की तरह थे। ‘एराइवल ऑफ ट्रेन’ के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों को लगा कि ट्रेन होटल के अंदर चली आई है। कुछ लोग तो बाहर की ओर भागने लगे। इन चलचित्रों के माध्यम से लोगों ने पहली बार चलती-फिरती चित्रों को देखा था। पेरिस के लोगों ने पहली बार बीते हुए पलों को अपनी आंखों के सामने महसूस किया था। उस दौर में सिनेमा एक ऐसा आविष्कार था जिसकी कल्पना ही कोई मनुष्य कर सकता था। यही कारण है कि कुछ ही समय में सिनेमा पूरे विश्व में लोकप्रिय हो गया। ल्युमियर के बाद पूरे विश्व में विज्ञान और कला जगत से जुड़े लोगों ने नित्य नए प्रयोग किए। इन लोगों के सामूहिक प्रयास का ही प्रतिफल है कि आज सिनेमा कला, संस्कृति और मनोरंजन का सबसे सशक्त माध्यम बन गया है।

वर्तमान युग में सिनेमा जनसंचार के सभी माध्यमों में सबसे अधिक लोकप्रिय है। इसका क्षेत्र और प्रभाव इतना अधिक व्यापक है कि यह बहुत कम समय में जनसमूह की भावनाओं को आनन्दित, आन्दोलित और संवेदित करता है। सिनेमा को कला की श्रेणी में रखा जाता है। अन्य कलाओं की अपेक्षा यह कला न केवल अत्यधिक प्रभावशाली है बल्कि सभी कलाओं को अपने अन्दर आत्मसात भी किए हुए है। साहित्य, नाटक, नृत्य, चित्र, संगीत, गायन आदि कलाओं का सार्थक उपयोग सिनेमा में हुआ है. सिनेमा के बारे में विमल दिसानायके ने एकदम सही लिखा है कि “चलचित्र जनसंस्कृति का माध्यम है और सबसे बढ़कर बीसवीं शताब्दी की यही वह शैली है, जो कला को सार्वभौमिक बनाती है। किसी भी अन्य मध्यम की अपेक्षा चलचित्र न केवल मनोरंजन करता है बल्कि शिक्षित भी करता है। यह दुनिया को समझने की शक्ति और समझ प्रदान करता है, जिसमें हम रहते हैं। ये चलती-फिरती तस्वीरें हमारे सपनों और उम्मीदों को अभिव्यक्ति देती हैं। (मोती गोकुल सिंह, विमल दिसानायके, इंडियन पॉपुलर सिनेमा, ए नैरेटिव ऑफ कल्चरल चेंज, ट्रेंथम बुक्स, इंग्लैंड)
लेखक – डॉ अरुण कुमार, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, लक्ष्मीबाई महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय व सम्पादक, लोकमंच पत्रिका. सम्पर्क – lokmanchpatrika@gmail.com, 8178055172, 9868719955.
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