श्री कैलाश सत्यार्थी की ‘छोटे से जिस्म में बड़े से इंसान’ कविता

यह जातियों के उत्खनन का दौर है। हिंदी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं में प्रमुखता से दलित साहित्य की रचना हो रही है। उस पर चर्चा हो रही है। शोध हो रहे हैं और शिक्षा संस्थानों में वह सिलेबस का हिस्सा हो रहा है। हाशिए के समाजों में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होता जाएगा और जागरुकता बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे दलित साहित्य का दायरा भी बढ़ता जाएगा। वर्तमान में दलित साहित्य का मुख्य उद्देश्य जन-जागरुकता पैदा करना है। उसमें वह जोश और जज्बा पैदा करना है जो हाशिए के समाज को प्रेरित और प्रोत्साहित कर सके। इतिहास से सबक दे सके और भविष्य के निर्माण की ओर उन्मुख कर सके। पिछले मात्र तीस-चालीस सालों के दौरान जिस मात्रा में दलित साहित्य का सृजन और विकास हुआ है उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य का साहित्य दलित साहित्य या हाशिए का साहित्य है।

दलित समाज में जन्में लेखक इस साहित्य के सृजन में जिस तरह संलग्न हैं उस तरह से गैर-दलित लेखक दलित सरोकारों में दिलचस्पी नहीं लेते। उसके कई कारण हैं। कारणों के विश्लेषण और तह में मैं फिलहाल नहीं जाऊंगा। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता होगा जब हाशिए के समाज के साथ कोई न कोई अमानवीय या पैशाचिक कृत्य को अंजाम नहीं दिया जाता हो और उस पर सामान्य वर्ग के स्वनामधन्य कवि-लेखक भूले से भी अपनी संवेदना या रोष प्रकट करते हों। इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि हिंदी साहित्य के जगमगाते सितारों की संवेदना या करुणा कितनी सिलेक्टिव है। तथाकथित मुख्यधारा की समकालीन हिंदी कविता को खंगाल डालिए, आपको बमुश्किल हाशिए के समाज का दुख-दर्द और दंश वहां देखने को मिलेगा। आखिर किस ‘’जनवाद’’ का बुझौवल वे बुझाते रहते हैं?
नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित श्री कैलाश सत्यार्थी की कविताओं का जब हम अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि उनकी अमूमन कविताएं हाशिए के समाज के दुख-दर्द-दैन्य और पीड़ा को अपना विषय बनाती हैं। उल्लेखनीय है कि जो बाल मजदूर होते हैं वे हाशिए के समाजों (अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों) से ही आते हैं। एक बाल अधिकार कार्यकर्ता होने के नाते श्री सत्यार्थी बाल मजदूरों की मुक्ति और उनके अधिकारों का अपनी कविताओं में आह्वान करते हैं। जबकि गौरतलब है कि श्री सत्यार्थी मूलत: कवि नहीं हैं और उनका जन्म एक गैर-दलित परिवार में हुआ है। इसीलिए श्री सत्यार्थी की संवेदना, करुणा, कर्तव्य और नैतिकता अन्य गैर दलित कवियों की तरह सिलेक्टिव नहीं हैं और वे एक ज्वलंत अपवाद के रूप में हमारे सामने प्रकट होते हैं। अभी हाल ही में हाथरस की बेटी मनीषा वाल्मीकि के साथ हुए गैंगरेप और हत्या के विरोध में उन्होंने जिस तरह से भूख हड़ताल किया और आरोपियों को कठोर सजा देने की मांग की वह विभाजित भारतीय समाज में उन्हें सबसे अलग ठहराता है।

श्री सत्यार्थी की संवेदना दलितों में भी दलित के लिए उमड़ती दिखती है। जहां तक दलित कवियों की भी नजर बमुश्किल जा पाती है। उनके साथ काम करने वाले एक मुक्त बाल मजदूर कालू कुमार महादलित वर्ग की मुसहर जाति से आते थे। ग़ुलामी से मुक्त कराए गए कालू कुमार श्री सत्यार्थी द्वारा स्थापित बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के एक प्रखर कार्यकर्ता थे। जब वे मुक्ति कारवां जागरुकता अभियान टीम को लेकर झारखंड दौरे पर थे, उसी दौरान 22 सितंबर, 2011 की सुबह 4 बजे एक जहरीले करैत सांप ने उन्हें डंस लिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई थी। श्री सत्यार्थी और उनके साथियों ने उन्हें लाख बचाने की कोशिश की लेकिन वे बच नहीं सके। शहीद कालू कुमार को अपनी संवेदना प्रकट करते हुए श्री सत्यार्थी का कवि कहता है-
‘‘आज मेरी अधखिली, मगर सबसे खूबसूरत,
प्यारी सी, नन्हीं सी, सपने सी कविता को
काल बन कर डंस लिया, जहरीले सांप ने।
खुले आसमान को, सागर को, लहरों को,
धरती को, पर्वत को, अभी-अभी फूटी
भोर की किरणों को,
गर्म-गर्म आंधी को, ठंडी बयार को,
भीतर से ज्वालामुखी, बाहर फुहार को
और मेरी अधखिली, नाजुक सी कविता को
काल बन कर डंस लिया, जहरीले सांप ने।’’

कालू कुमार को बाल मजदूरी से मुक्त कराया गया और राजस्थान के विराटनगर स्थित ‘‘बाल आश्रम’’ में उन्हें उनका बचपन भरपूर जीने एवं पढ़ने-लिखने का अवसर उपलब्ध कराया गया। कालू ने भी अवसर का लाभ उठाया और स्कूली पढ़ाई अव्वल नंबरों से पास किया। सांस्कृतिक गतिविधियों और खेल-कूद में भी उनकी दिलचस्पी देखते बनती थी। वे जैसे ही बाल अधिकारों की वकालत करने लगे, उनकी जिंदगी एक सांप ने खत्म कर दी। श्री सत्यार्थी ने सही ही उनके लिए ‘’अधखिली-नाजुक’’ से पदों का अपनी कविता में प्रयोग किया है क्योंकि कालू ने तो अभी खिलना ही शुरू किया था। अभी तो बाल दासता की बेडि़यों में सिसकते बचपन को ना जाने उनसे कितनी अपेक्षाएं और उम्मीदें थीं। अभी तो कालू के रूप में भोर की किरण ही प्रकट हुई थी और दिनभर के उजाले को देखना बाकी था। श्री सत्यार्थी यदि कालू के लिए खुले आसमान, सागर, धरती और पर्वत जैसे प्रतीकों का प्रयोग करते हैं तो यह अकारण नहीं है। कालू के बारे में कहा जाता है कि उनमें किसी को भी प्रभावित करने की क्षमता थी। वे बहुत ही जल्दी बाल मजदूरों को मुक्त करा सकते थे और उनके दोस्त बन सकते थे। बच्चों को कन्विंस करना तो जैसे उनके दाएं-बाएं हाथ का खेल था। श्री सत्यार्थी के साथ एक बार कालू कुमार को जब अमेरिका जाने का मौका मिला, तो तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
श्री सत्यार्थी कालू कुमार के व्यक्तित्व की सटीक और अचूक अभिव्यक्ति करते हैं। वे कालू कुमार को बहुत ही प्यार, स्नेह और गरिमा से याद करते हैं और उन्हें आंदोलन की आशा के रूप में देखते हैं-
‘‘मुक्ति के अर्थ को, सफलता के गर्व को,
खुद पर विश्वास को, जीत के अहसास को,
बचपन की परिभाषा को, आंदोलन की आशा को,
और मेरी नन्हीं-सी, प्यारी-सी, अधलिखी कविता को,
काल बन कर डंस लिया, जहरीले सांप ने।’’

मेरी नन्हीं-सी, प्यारी-सी, अधलिखी कविता को, काल बन कर डंस लिया, जहरीले सांप ने, जैसी पंक्ति के जरिए हम श्री सत्यार्थी के कवि की वेदना को महसूस कर सकते हैं। हम यहां यह भी लक्ष्य कर सकते हैं कि इस वेदना में कोई विलाप नहीं है बल्कि वह विशुद्ध करुणा है, जो हृदय की अतल गहराइयों से पैदा होती है। करुणा की विशिष्टता होती है कि वह दुखिया के दुख को देखकर उसके समाधान की ओर अग्रसर होती है। श्री सत्यार्थी चाहकर भी विलाप नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें अंदेशा रहता है कि उससे उनके कार्यकर्ताओं में निराशा का घर पैदा हो सकता है। आगे कालू कुमार की सरलता, संकल्प और इंसान का हवाला देते हुए श्री सत्यार्थी कहते हैं-
‘‘हवाओं में घुल चुकी मीठी सरलता को,
प्राणों में बस गए सच्चे संकल्प को,
चेहरे से कहीं चौड़ी निश्छल मुस्कान को,
छोटे से जिस्म में बड़े से इंसान को,
गुलामी को, दुखों को, निराशा व घृणा को,
बार-बार रौंद चुके धूल सने पैरों को,
और मेरी अधलिखी अनकही नन्हीं सी
कविता को-कालू को
काल बन कर डंस लिया, जहरीले सांप ने।
जहरीले सांप ने काल बन कर डंस लिया।।
आज मेरी कविता को-आज मेरे कालू को।।।’’
आधुनिक काल में भी यदि कविता को साहित्य में विशिष्ट दर्जा हासिल है, तो उसके अन्य कारणों में एक कारण यह भी है कि वह खोज करती है, अनुसंधान करती है और आविष्कार करती है। वह स्थिति, दृश्य और व्यक्ति को वैसा ही नहीं दिखाती जैसा कि वे दिखते हैं। कविता स्थिति, दृश्य और व्यक्ति की गतिविधियों का आकलन करके उसमें से अनकही, अनछुए तत्वों, पहलुओं एवं रहस्यों का उद्घाटन करती है। तब जाकर कहीं किसी का मूल्यांकन संभव हो पाता है। हम देखते हैं कि कालू कुमार में अंतर्निहित खूबियों को बाहर निकालने में श्री सत्यार्थी की संवेदना बाखूबी सफल होती है। निदा फाजली ने ठीक ही कहा है कि एक आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, किसी को भी देखना तो बार-बार देखना। मेरा ख्याल है कि निदा फाजली को यहां इसी मंतव्य के साथ देखा जाना चाहिए। श्री सत्यार्थी का कवि कालू कुमार का वास्तविक मूल्यांकन करता है और यह साबित करता है कि कालू जैसों का बचपन यदि बचाया जाए तथा उनको आगे बढ़ने का अवसर उपलब्ध कराया जाए तो वे भी हीरे, मोती और मणि-माणिक्य जैसी चमक बिखेर सकते हैं।

गांधी जिस अंतिम जन की आंखों से आंसू पोंछने और उनको हंसाने की बात करते थे श्री सत्यार्थी की कविताएं उन्हीं को संबोधित हैं। जाहिर-सी बात है कि भारतीय समाज में वे कोई और नहीं बल्कि दलित-महादलित हैं। जिनके बारे में गौतम बुद्ध ने कहा था कि उनकी आंखों से इतने आंसू निकले हैं कि समुद्र में भी उतने जल नहीं होंगे। पिछले चालीस वर्षों से हाशिए के बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले श्री सत्यार्थी को इस बात का पता है कि उनका क्या कर्तव्य है। इसलिए उनकी संवेदना, करुणा और नैतिकता यदि सिलेक्टिव नहीं हुई है तो उसका मूल कारण उनके द्वारा निभाए गए कर्तव्य हैं।
लेखक- पंकज चौधरी, युवा कवि और आलोचक