हरियाणवी लोकनाट्य ‘सांग’ – अरुण कुमार

हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में ‘सांग’ एक अत्यंत प्रचलित लोकनाट्य है। लोकनाट्य ‘सांग’ को हरियाणा की नाट्य परम्परा का सिरमौर माना जाता है जिसे यहां का ‘कौमी नाटक’ भी कहा जा सकता है। ‘सांग’ एक प्रकार की संगीतमय नाटिका होती है जिसमें हरियाणा की प्रचलित लोककथाओं को लोकगीत, संगीत एवं नृत्य से सम्बद्ध कर प्रस्तुत किया जाता है। किसी भी क्षेत्र में प्रचलित लोकनाट्य वहां के जीवित दस्तावेज़ होते हैं क्योंकि इनमें उस क्षेत्र के आदर्श, जीवन-मूल्य, संस्कृति, मिथक आदि चित्रित होते हैं। इस आधार पर सांग का भी हरियाणा के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है. इससे हरियाणा की प्राचीन संस्कृति, उसकी सामाजिक स्थिति और लोक में मौजूद परम्पराओं व विश्वासों का पता चलता है. ‘सांग’ हरियाणवी संस्कृति का प्रतिबिंब है जिससे प्रदेश की प्राचीन संस्कृति से लेकर आधुनिक काल तक की संस्कृति का ज्ञान होता है। सांगों ने हरियाणा के लोकजीवन पर अमिट छाप छोड़ी है। सांगों की लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हरियाणा में कई स्कूल, मंदिर, कुएं, धर्मशाला आदि का निर्माण सांगों के प्रदर्शन के दौरान इकट्ठा किए गए चंदे से हुआ है।
सांग के प्राचीन स्वरूप एवं परम्परा के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि ‘सांग’ हिन्दी शब्द ‘स्वांग’ का अपभ्रंश है। डॉ सोमनाथ गुप्त, डॉ राजेन्द्र भनोट, डॉ शंकर लाल यादव आदि विद्वान ‘सांग’ या ‘सांगीत’ को ‘संगीत’ का ही फूहड़ रूप मानते हैं। श्री रामनारायण अग्रवाल का मानना है कि स्वांग का एक नाट्यरूप उत्तर तथा मध्य भारत में ‘ख्याल’ नाम से विकसित हुआ था तथा उसी ने पंजाब में ख्याल, राजस्थान में तुर्रा कलगी, मालवा में माच तथा ब्रज क्षेत्र में भगत और हरियाणा तथा मेरठ में सांग नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। श्री सुरेश अवस्थी के इन्हीं बातों का समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं। उनके अनुसार, ये नाटक कई नामों से प्रसिद्ध हैं, जैसे नौटंकी, संगीत, भगत, निहालदे और स्वांग। ये सभी शब्द नाम समानार्थी हैं लेकिन ऐसा लगता है कि स्वांग इन सबमें सबसे अधिक प्राचीन है। श्री जगदीश चंद्र माथुर इसका प्राचीनतम नाम ‘संगीतक’ मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘संगीतक’ ही बाद में ‘सांगीत’ और ‘सांग’ बन गया। उन्होंने लिखा है कि ‘संगीतक’ से ‘सांगीत’ और ‘सांगीत’ से ‘सांग’ शब्द विकसित हुआ।
हरियाणा की जनरंजनकारी विधा ‘सांग’ वस्तुतः गीत-संगीत एवं नृत्य की मनमोहक त्रिवेणी है. सांग में लोकनाट्य की वह विशेषता समाहित है जिससे किसी लोकनाट्य को ‘गीतिकाव्य’ कहा जाता है अर्थात इसमें पद्य की प्रधानता होती है। हरियाणवी सांग अपनी पद्य शैली के कारण भी अधिक लोकप्रिय हैं। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- इसके गीतों की खूबसूरती। सांग के गीतों का यह जादू दर्शकों को बांध कर रखता है। एक हाथ कान पर रखकर और दूसरे को आकाश में उठाकर जब सांग का कलाकार एक विशेष अंदाज़ में गीत गाता है तो दर्शक भाव-विभोर हो जाते हैं। सांग में काव्य या रागिनी में सवाल-जवाब आते हैं और जो सूत्रधार होता है वही बीच-बीच में संवाद बोलता है।
सांग में नृत्य का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है। नृत्य के हाव-भाव से सांग के प्रदर्शन में निखार आता है। बिना बोले या कम बोलकर कुछ निश्चित एव परम्परित संकेतों के माध्यम से दर्शकों को समझाने का प्रयास किया जाता है। नृत्य की मुद्राएं सांग के अभिनय को और अधिक आकर्षक एवं संवेद्य बनाती हैं। सांग में संकेतों का बहुलता से प्रयोग किया जाता है। इन संकेतों का एक लाभ यह है कि कई बातें बिना शब्दों के ही बयान हो जाती हैं। इस संकेत विधान से कई त्रुटियां पूरी हो जाती हैं। ये सांकेतिक तत्व सांगों को कृत्रिम बनने से रोकते हैं। नृत्य का ठुमका लगते ही सांग के दर्शकों में एक हलचल मच जाती है. सांग का अभिनेता हाव-भाव, चुहल, छेड़छाड़ और अन्य आंगिक क्रियाओं के माध्यम से दर्शकों को बांध कर रखता है।

अन्य लोकनाट्यों की तरह हरियाणा का लोकनाट्य ‘सांग’ भी शास्त्रीय नाटकों से भिन्न होता है। सांग में रंगमंच का कोई आडंबर नहीं होता है अर्थात अन्य लोकनाट्यों की तरह सांग में मंच बनाने या सजाने के लिए विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है। समाज के गरीब और साधारण जनता के संसाधनों से खेले जाने वाले इन लोकनाट्यों में अधिक रुपये खर्च करने की संभावना भी अधिक नहीं होती. एक प्रकार से यह सही भी है वरना यह भी अभिजात्य नाटकों का कृत्रिम मंच बन जायेगा और इसकी सहजता समाप्त हो जाएगी। सांग का प्रदर्शन खुले आसमान के नीचे होता है और रात भर चलता है। सांग खुले आसमान के नीचे, चौतरफा दर्शकों से घिरा लोकरंजन और लोकरुचि का क्षेत्र होता है। तख्तों का ऊंचा मंच बनाकर उसके चारों ओर बांस का घेरा बना लिया जाता है। पट-परिवर्तन का कोई विधान नहीं होता। प्रवेश और प्रस्थान आदि सब मंच पर दर्शकों के सामने ही होते हैं। दर्शक मंच के तीन ओर बैठते हैं।
सांग एक व्यापक विधा है जिसके प्रस्तुतीकरण के तरीके को विश्व में विभिन्न नामों से जाना जाता है। हरियाणवी सांगों के गंभीर अध्येता अनूप लाठर बताते हैं कि ग्रीक में इसे ऐरीना थियेटर के नाम से जाना जाता है तो अमेरिका और यूरोप में इसे थियेटर इन द राउंड के नाम से पारिभाषित किया जाता है। 1947 में प्रसिद्ध नाटककार मैंचों जोन्स ने पूरे विश्व की अलग-अलग मंचीय विधाओं का अध्ययन करने के पश्चात अमेरिका में थियेटर इन द राउंड की परिपाटी शुरू की थी। इसी प्रकार विश्व प्रसिद्ध जर्मन नाटककार ब्रेख्त की ब्रेख्तियन शैली पर भी सांग का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। इस थियेटर प्रणाली में थ्योरी ऑफ एलिनेशन जिसके अनुसार नाटक का मैलोड्रामा कलाकार को जब दर्शक से दूर ले जाने लगता है तो वही पर उस मनोदशा को तोड़ने की परिपाटी है। सांग में यह परंपरा नकलिये के रूप में निभाई जाती है। वह समय-समय पर मंच को दर्शकों से जोड़ता है और अनजाने में ही उस मेलोड्रामा को समाप्त करता है। इसी के साथ-साथ बेड़ा बांधने वाला मुख्य कलाकार भी कभी-कभी सीटी बजाकर इस मनोदशा को क्रियान्वित करता है।
सांग के कलाकार अभिनय कुशल, संगीत विशेषज्ञ तथा दर्शकों को नृत्य-संगीत और भाव-सम्प्रेषण के साथ बांधकर रखने की कला में पारंगत होते हैं। सांग खेलते समय सभी कलाकार अन्य साथियों और वाद्य यंत्रों के साथ एक ही समय मंच पर आ जाते हैं। ये पात्र मंच पर ही घुम-घूमकर अभिनय करते हैं। सांग में देशकाल व वातावरण का सृजन करने के लिए इसके निर्देशक वेशभूषा और आभूषण आदि के माध्यम से करते हैं।
हरियाणा के सांग में नौटंकी की भांति पुरुष ही स्त्रियों के वेश में भूमिका निभाते हैं। हरियाणा में कुछ ऐसी सांग मंडलियां भी हैं जिनमें केवल औरतें काम करती हैं। ये सांग मंडलियां यमुना के खादर में खेल खेलती थीं। इनमें कलायत की सरदारी, गंगरु की नरनी और इंद्री की बाली का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। कभी-कभी स्त्री की भूमिका निभा रहे पुरुष कलाकार अपनी मूंछों के साथ ही अभिनय शुरू कर देते हैं। इससे सांग के प्रभाव में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आती।
सांगों में हास्य रस भी महत्वपूर्ण होता है और उसका आलम्बन होता है सांग का विदूषक, जिसे नकलची कहा जाता है। लोकरंजन का सर्वाधिक दायित्व इसी पात्र पर होता है। वह कभी राजा का मंत्री बनता है तो कभी साहूकार का रंगीला सहचर। नायक की विशेषताओं को प्रकट करने की अपेक्षा उसके द्वारा खलनायक और अन्य पात्रों की विकृतियां अच्छे ढंग से प्रस्तुत की जाती है। उसका कला-कौशल उसके वेश-विन्यास एवं उसकी तेज जबान में होता है, जिसमें हास्य-विनोद एवं सामयिक वाग्विदग्धता भरी होती है। दर्शकों की नाड़ी पहचान कर ऐन मौके पर वह ऐसे परिहास करता है कि दर्शक हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं। वह केवल अन्य पात्रों के साथ ही परिहास नहीं करता है बल्कि दर्शकों को भी उसमें शामिल कर लेता है। जब कोई दर्शक मजाकिया बात कर देता है तो वह उसका उसी तरह मजाकिया लहजे में जवाब देता है कि अन्य दर्शक भी हंसने लगते हैं। नकलची अपने क्रियाकलापों से दर्शकों का मनोरंजन भी करता है और मुख्य कथा में सहयोग भी करता है। वह कभी-कभी अश्लील बातें या संकेत भी कर देता है लेकिन सांग प्रेमी जनता उससे भी हास्य रस ग्रहण कर लेती है।
हरियाणा में आधुनिक सांगों के प्रतिष्ठापक पण्डित दीपचंद को माना जाता है। उनके प्रसिद्ध सांगों के नाम हैं- सीला सेठानी, हरिश्चन्द्र, नल-दमयंती, मीराबाई, सत्यवान-सावित्री, सेठ ताराचंद। किशनलाल भट्ट की प्रेरणा से पण्डित नेतराम ने ‘सीला सेठानी’ नामक एक उच्च कोटि का सांग बनाया था। इसे सांग के इतिहास का प्रथम सफल सांग माना जाता है। ‘सांग’ के इतिहास में पण्डित लखमीचंद का नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। उनका जन्म हरियाणा के सोनीपत जिले के गाँव जांटी कलां में पंडित उदमी राम के घर 15 जुलाई, 1903 को हुआ था.
लख्मीचंद बसै थे जाटी जमना के कंठारै,
नरेले तै तीन कोस सड़के आजम के सहारै, (प.मांगेराम-सांग नौरत्न)
पं0 लख्मीचन्द ने हरियाणवी सांग को नया मोड़ दिया। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर श्री रामनारायण अग्रवाल ने ‘सांगीतः एक लोक-नाट्य परम्परा’ नामक ग्रंथ में स्पष्ट किया है- ‘‘इन सब सांगियों में लख्मीचंद सर्वाधिक प्रतिभावान थे। रागनी के वर्तमान रूप के जन्मदाता वास्तव में लख्मीचंद है। कबीर की भांति लोक भाषा में वेदान्त तथा यौवन और प्रेम के मार्मिक चित्रण में लख्मीचंद बेजोड थे। इन जैसा लोक जीवन का चितेरा सांगी हरियाणे में दूसरा नहीं हुआ।
लखमीचंद ने लगभग 65 सांगों की रचना की है। उन्हें हरियाणा का सांग-सम्राट या सूर्य कवि भी कहा जाता है। पण्डित लखमीचंद ने सांग कला में कई परिवर्तन किए हैं। उन्होंने ही वाद्य यंत्रों में सबसे पहले हारमोनियम को शामिल किया। उनके समय में ही मंच पर छह तख्त लगने लगे तथा उन पर जाजम और उस पर चांदनी बिछाई जाने लगी। दर्शकों के बैठने के लिए शामियाना लगाया जाने लगा। लखमीचंद ने ही सबसे पहले मंच पर नायक के बैठने के लिए कुर्सी की व्यवस्था की। पण्डित लखमीचंद सांग में भूमिका भी निभाते थे। उनके द्वारा रचित हरिश्चन्द्र सांग में उनका अभिनय इतना अच्छा होता था कि हजारों दर्शक उन्हें देखने के बाद अपने आंसू नहीं रोक पाते थे। लोकनाट्यों की यही विशेषता है कि दर्शक पात्रों के साथ ही जीने लगते हैं। सांग में हरियाणा के समाज की सामूहिक भावना मिलती है। वे व्यक्ति विशेष से रचे जाकर भी व्यक्तित्व की छाप से मुक्त होते हैं। पण्डित लखमीचंद्र के सांग केवल उनके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं हैं बल्कि उनमें उस लखमी के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है जो हरियाणा की जनता का प्रतिनिधि है. उन्होंने जनता की मूक भावनाओं को अभिव्यक्त किया है। पण्डित लखमीचंद के अलावा सांग के कुछ प्रसिद्ध कलाकारों में मांगेराम, किशनलाल भाट, पण्डित दीपचंद, पण्डित रतिराम, हरदेवा आदि प्रमुख हैं।

सांग में काल्पनिक, लोकप्रचलित, पौराणिक एवं प्रेमाख्यानक कहानियों को विषय बनाया जाता है। हीर-रांझा, पद्मावत, सेठ ताराचंद, विराट पर्व, सत्यवान-सावित्री, हरिश्चन्द्र नल-दमयंती, मीराबाई, पूरण भगत, शाही लकड़हारा, मदनावत आदि प्रमुख सांग हैं। लम्बा कथागीत हरियाणवी सांग का प्राण है। सांग में प्रेम और यौवन आंखमिचौली खेलते नजर आते हैं। सांगी के गीत में प्रेम और यौवन का अद्भुत मिश्रण दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि सांगी केवल प्रेम और यौवन के गीत गाने के लिए ही है। त्रिबोलों और रागनी का एक-एक शब्द श्रृंगार और वीर रस के ताने-बाने से बुना होता है। सांगियों द्वारा प्रस्तुत धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक एवं प्रेममूलक इन कथाओं में स्थानीय जनता रामायण से भी अधिक रस लेती है। ये रससिद्ध सांगी रस के ऐसे उत्स बहाते हैं कि दर्शक उसमें बह जाते हैं। ऐसा साधारणीकरण साहित्यिक नाटकों में बहुत कम देखने को मिलता है।

हमारे शास्त्रों में यह बताया गया है कि काव्य का उद्देश्य हृदय को रस निमग्न करना है। रस निष्पत्ति का सबसे अच्छा माध्यम नाटक को माना जाता है। इसलिए अभिनवगुप्त ने ‘नाट्यमेव रसः रस-समुदायो हि नाट्यम’ माना है। ये बातें लोकनाट्यों पर भी लागू होती हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि लोकनाट्यों का आयोजन केवल मनोरंजन के लिए होता है बल्कि ज्ञान का प्रवाह भी इनका प्रमुख उद्देश्य होता है। लोकनाट्यों के माध्यम से सामाजिक जीवन की समस्याओं के समाधान का भी प्रयास किया जाता है। श्री वेद प्रकाश बटुक लिखते हैं कि “लोकनाट्य का उपयोग अन्य लोक साहित्य उपादानों की भांति न केवल मनोरंजन करना है, वरन सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन पद्धति की शिक्षा देने के साथ-साथ आवश्यकता पड़ने पर प्रगति एवं परिवर्तन की प्रेरणा देना भी है।” बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, बहु-विवाह, रिश्वतखोरी, चोर-बाजारी, छुआछूत आदि बुराइयों के उन्मूलन के लिए हरियाणवी सांगों ने आम जनता को जागरूक करने का महत्वपूर्ण काम किया है। कीचक विराट पर्व तथा द्रौपदी चीरहरण में नारी के प्रति अन्याय तथा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन किया गया है। पण्डित लखमीचन्द ने द्रौपदी के नख-शिख वर्णन में सभी सीमाओं को तोड़ दिया है।
हरियाणवी सांग के कई रूप प्रचलित हैं। सांगों की कथाओं का मूल आधार पौराणिक, धार्मिक, नीतिपरक या प्रेमपरक होता है। प्रेम कथाओं में वियोग और संयोग श्रृंगार युक्त अभिनय की प्रधानता होती है। इसमें उपदेशात्मकता के भी दर्शन होते हैं और सामाजिक बुराइयों की तीखी आलोचना की जाती है। इनमें अभिजात्य वर्ग पर व्यंग्य भी किए जाते हैं। लोकरुचि के अनुरूप ही इनकी कथाओं का चुनाव किया जाता है परंतु सांगी के लिए कोई बंधन नहीं होता। वह अपनी प्रतिभा के अनुसार कथानक का चुनाव पुराण से कर सकता है या वह चाहे तो प्रचलित लोककथाओं में कल्पना के योग से एक नई कथा गढ़ सकता है। कई बार सांगी किसी काल्पनिक राजा का संबंध किसी राजघराने से जोड़ देता है और अपनी कल्पना के योग से उसे एक नई कथा बना देता है। हरियाणवी सांग में कथानक प्राय: ढीला ढाला होता है। पूर्वार्द्ध में कथा धीरे-धीरे आगे बढ़ती है उत्तरार्द्ध में इसकी गति अचानक इतनी तेज हो जाती है कि जैसे कथा को जबर्दस्ती कोई आगे धकेल रहा हो। हरियाणवी सांग मंडलियों का प्रत्येक सदस्य प्रायः प्रत्येक पात्र का कार्य कर सकता है।
लेखक- डॉ अरुण कुमार, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, लक्ष्मीबाई महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय. 8178055172, 09868719955, lokmanchpatrika@gmail.com
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