लोकमंच पत्रिका

लोकचेतना को समर्पित
मीनू खनेजा की कविता- प्रकृति कहती है

प्रकृति कहती है-

मैं शुद्ध साँसों से कर रही हूं प्राणायाम

पेड़ झूम रहे हैं मस्त

नदियां हैं स्वस्थ

पक्षी तिनका-तिनका जोड़कर

बना रहे हैं घर

सम्पूर्ण मानव जाति है

सूक्ष्म वायरस कोरोना की

तेजधार से त्रस्त।

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प्रकृति कहती है-

मैं शिक्षक हूं

मैं विश्वविद्यालय हूं

मानव सचमुच है क्षणभंगुर

संभालो अपने आप को

तुम बन सकते हो सम्राट अशोक

तुम बन सकते हो महात्मा बुद्ध।

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प्रकृति कहती है-

तुम भले ही हो लॉकडाउन में कैद

पर हौसलों से भर लो

मन की उड़ान।

प्रकृति कहती है-

मत कोसो इसे शाप समझ कर

यह समय है ईमानदारी से जुडने का

रिश्तों को जोड़ने का

खुद को तलाशने का।

प्रकृति कहती है-

विजयी होना मैंने सीखा है तुमसे

पर, धन्य हो तुम

टूटते नहीं

हारते नहीं,

थकते नहीं,

रात के घने अंधकार में भी

सँजो लेते हो सुबह की मुस्कान

तुम्हारे साथ चलने को

अब तैयार हूं मैं भी

तुम्हारी भावनाओं के समक्ष

नतमस्तक हूं मैं भी।

डॉ मीनू खनेजा हमारे समय की प्रसिद्ध कवयित्री हैं। कोरोना संकट के इस दौर में उनकी यह कविता मानव और  प्रकृति के आपसी सम्बन्धों का विश्लेषण करती है। डॉ खनेजा दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में हिन्दी साहित्य की प्राध्यापिका हैं।

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