मानववाद: स्वरूप और पृष्ठभूमि- अरुण कुमार

मानववाद वह दर्शन और विचारधारा है जिसका उद्देश्य इस सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी माने जाने वाले मनुष्य के महत्व और उसकी अस्मिता को जीवन के सभी क्षेत्रों में स्थापित करना है। मानववाद का प्रस्थान बिन्दु भी मनुष्य है और अंतिम बिन्दु भी मनुष्य ही है। मानववाद मनुष्य के अस्तित्व, उसकी स्वतंत्रता एवं उसके कल्याण का पक्षधर दर्शन और विचारधारा है। हिंदी में प्रचलित ‘मानववाद’ शब्द अंग्रेज़ी के Humanism शब्द का अनुवाद है। Huminism शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के Huminitas शब्द से हुई है। Huminitas शब्द का प्राचीन अर्थ मनुष्य की शिक्षा से संबंधित था। यूनानी भाषा में इसके लिए Paidei शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसका अर्थ होता है ऐसी शिक्षा जो मनुष्य में अनुशासन उत्पन्न करती है, ऐसी शिक्षा जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मानववाद मनुष्य को बर्बरता से मुक्त करने की शिक्षा देता है साथ ही वह मनुष्य को इस तरह से शिक्षित, अनुशासित और दीक्षित करता है कि वह मनुष्य के अनुसार व्यवहार कर सके। उसके व्यवहार से ही ज्ञात हो कि वह अन्य पशुओं से श्रेष्ठ है। मानववाद मानव को सर्वश्रेष्ठ मानता है और मानवीय स्वतंत्रता एवं अस्मिता को सबसे ऊपर स्थान देता है।
आज पूरे विश्व में मनुष्य जाति के बीच जातीय, नस्लीय, भाषिक, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय, रंगभेद और विचारधारात्मक संघर्षों ने जन्म ले लिया है। आज मनुष्य के मन में जिस तरह की संकीर्णता, वैमनस्यता, कटुता आदि अमानवीय गुणों का विकास हुआ है उससे नित्य नए संघर्ष भी जन्म ले रहे हैं। इसमें कोई संदेश नहीं है कि मानव जाति के इतिहास में संघर्षों का भी अपना एक लंबा इतिहास है लेकिन वे संघर्ष आज के संघर्षों की तुलना में नगण्य हैं। प्राचीन समय में जो भी संघर्ष हुए वे मानव अस्तित्व के लिए हुए थे लेकिन आज तथाकथित विकास के नाम पर संघर्ष हो रहे हैं। आज के विकासशील युग में ऐसा नहीं है कि मानव को अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं है लेकिन वह तथाकथित विकास की चकाचौंध में इस कदर खो गया है कि उसके लिए तमाम सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य महत्वहीन होते जा रहे हैं। आज मानव के लिए प्रेम, बन्धुत्व, सौहार्द्र आदि शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं। इस कारण वर्तमान युग में मानववाद की प्रासंगिकता कहीं अधिक बढ़ गई है।
मानववाद मनुष्य को चिंतन का केन्द्र बिन्दु मानता है और वह यह भी मानता है कि समस्त जीवन और जगत का आधार भी मनुष्य ही है। मानववाद के अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास एवं अपना हित स्वयं कर सकता है। मानव प्रकृति की देन भले ही हो परन्तु वही उसके विकास का साधन भी है। मनुष्य अपनी बौद्धिकता द्वारा यह विकास करता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि उसे नैतिक संकल्प एवं आध्यात्मिक मूल्यों से मदद मिलती है। इन बौद्धिक, नैतिक और नैतिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए उसे एक उच्चतर शक्ति की आवश्यकता होती है। उच्चतर शक्ति का अर्थ धर्म हो सकता है। यद्धपि कुछ मानववादी विद्वानों के अनुसार मानव जाति ही सबसे उच्च है और वे मानव की किसी उच्चतर शक्ति पर निर्भरता को स्वीकार नहीं करते हैं। प्रोफेसर एन के देवराज ने लिखा भी है कि मानववाद, मानव के जीवन और मूल्य जो मात्र इस जगत से सम्बंधित है के प्रति एक दृष्टिकोण मात्र है। कुछ मानववादी चिंतक धर्म को प्रेरणा के रूप में स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि मनुष्य में मानववादी गुणों का विकास ईश्वर की प्रेरणा से ही होता है।
विश्व के मानववादी चिंतकों यथा जॉन डिवी, कार्लोस लामोंट, जवाहरलाल नेहरु, एम एन रॉय एवं कार्ल मार्क्स ने धर्म विरोध या धर्मनिरपेक्ष मानववाद की रूपरेखा सामने रखी है। इन चिंतकों ने माना है कि बिना धर्म या धार्मिक तत्वों ( अतिभौतिक या अति प्राकृतिक सत्ता ) के बिना भी मानववाद की स्थापना की जा सकती है। दूसरी ओर काम्टे, जे एस मिल, जेम्स फास्टर, महात्मा गांधी, रवींद्र नाथ टैगोर जैसे चिंतकों ने धर्म संगत मानववाद की संकल्पना प्रस्तुत की है। उन्होंने माना है कि पारलौकिकता को स्वीकार करते हुए मानव हित का संरक्षण, संवर्द्धन एवं चरितार्थन किया जा सकता है। दूसरी तरफ निरीश्वरवादी जैन और बौद्ध मत भी मानवहित को लौकिक न स्वीकार करके उसके आध्यात्मिकता को स्वीकार करते हैं। धर्म संगत मानववादी यह मानते हैं कि मानवहित के लिए ईश्वरीय प्रेरणा आवश्यक है। परन्तु जब हम धर्म का संबंध किसी अधिदैविक सत्ता से न जोड़कर यह मानते हैं कि धर्म वह है जो मानव एवं सामाजिक मूल्यों की वृद्धि करता है तो धर्म और मानववाद एक दूसरे के निकट प्रतीत होते हैं।
पाश्चात्य मत में मानववादी इतिहास
सामान्यतः मानववादी विचारधारा नवीन होते हुए भी प्राचीन है, जिसका अभ्युदय यूनानी चिंतनधारा में पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व के राजनीतिक चिंतक पेराक्लीज के मानववादी विचारों से माना जा सकता है। पेराक्लीज ने जन सामान्य की तरफदारी करते हुए ‘खुले दिमाग’ और ‘खुले समाज’ का समर्थन किया। यहीं से मानववादी विचारधारा का उदय होता है। उल्लेखनीय है कि इसी काल में होमर ने अपने ग्रंथों द्वारा यूनानी समाज को प्रभावित किया। नए विचारों के उदय के कारण यह युग मानव क्रांति का काल भी कहा जाता है। बाद में प्रोटागोरस ने कहा कि मनुष्य ही सभी वस्तुओं का मानदण्ड है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के सत्य का मानक है। मानववादी विचारधारा को आगे बढाते हुए सुकरात ने ‘स्वयं अपने को समझो’ की बात कही। उन्होंने मानवीय आत्मा को महत्ता प्रदान की एवं आदर्शवाद की नींव रखी जिसका प्रभाव हमें प्लेटो, हीगेल एवं बोसांके के आदर्शवाद पर दिखाई देता है। किन्तु जहां प्लेटो एवं हीगेल ने आत्मतत्व के आधार पर राज्य को सर्वाधिकार प्रदान किया, मनुष्य की स्वतंत्रता का पूर्ण लोप कर दिया, वहीं सुकरात आत्मतत्व को उपेक्षित करने वाले किसी भी कानून का विरोध करते हैं।
सुकरात के बाद अरस्तू ने मनुष्य को मानवीयता के धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया। अरस्तू ने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और जो समाज से पृथक रहता है, वह मनुष्य नहीं, बल्कि देवता या पशु है। अरस्तू ने स्पष्ट रूप से कहा कि व्यक्ति के सद्गुण युक्त जीवन की प्राप्ति के मार्ग में आने वाली अवांछनीय तत्वों के विरुद्ध राज्य एक साधन है। इस प्रकार सुकरात के बाद अरस्तू के विचारों में मानववादी छवि देखने को मिलती है। रोमन युग में सिसरो (106 से 43 ई पू) ने मानववादी परंपरा को प्राकृतिक कानून के सिद्धांत पर समर्थन दिया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं और सभी मनुष्य गरिमा एवं आदर के पात्र हैं।
पाश्चात्य दर्शन जगत में मध्य-युग तक आते-आते धर्म का वर्चस्व बढ़ गया जिसके कारण मनुष्य की गरिमा को हानि पहुंची। वहां चर्च की प्रधानता स्थापित हो गई जिसके कारण जीवन एवं जगत के प्रति मनुष्य की दृष्टि धर्म से अनुशासित होने लगी। मनुष्य की अस्मिता को पराभौतिक शक्ति के सामने महत्व नहीं दिया जाता था। सामान्यतः इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण मध्य युग को अंधकार युग भी कहा जाता है। मध्य-युग की धार्मिकता के विरुद्ध मानववादियों ने मनुष्य की प्रतिष्ठा का आंदोलन चलाया। मानववादियों ने कहा कि मनुष्य प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र है और व्यक्ति अपना स्वामी स्वयं है। व्यक्ति स्वयं साध्य है तथा समाज एवं राज्य व्यक्तियों के हितों की पूर्ति के केवल साधन हैं। मध्य-युग में सेंट टॉमस एक्वीनास ने मानववाद को प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक्वीनास मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं और कहते हैं कि मनुष्य की सामाजिकता की प्रवृत्ति के कारण ही राज्य की उत्पत्ति होती है। वे आगे कहते हैं कि राज्य का कर्त्तव्य एवं उद्देश्य मानव को उत्तम जीवन की प्राप्ति कराना है अर्थात राज्य साधन है साध्य नहीं।
उपर्युक्त विवेचनाओं से पता चलता है कि ग्रीक-युग, रोमन-युग और मध्य-युग में मानववादी विचारधारा का उदय हुआ किन्तु दार्शनिक और साहित्यिक आंदोलन के रूप में इसका उदय चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इटली में हुआ। 15 वीं- 16 वीं शताब्दी के दौरान अन्य यूरोपीय देशों में मानववादी विचारधारा का प्रसार हुआ।
यूरोप के इतिहास में 14 वीं से 16 वीं शताब्दी के बीच का समय बहुत महत्वपूर्ण है। यूरोप में इस अवधि को नवजागरण का युग ( Renaissance रेनेसां ) कहा जाता है। इसी समय यूरोप में धार्मिक अंधविश्वासों का लोप और धर्मनिरपेक्ष प्रवृत्तियों का विकास दिखाई देता है। सम्पूर्ण यूरोप अंधकार युग से बाहर आने लगता है। इसी समय मनुष्य की गरिमा को प्रतिष्ठित करने वाले विचारों का प्रसार बढ़ा। यह मध्य-युग से आधुनिक युग की संक्रांति का सूचक है। साहित्यिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में इस आंदोलन को ही पहली बार मानववादी विचारधारा की संज्ञा दी गई। प्रो एडवर्ड चेने के अनुसार, सोलहवीं सदी के बाद से मानववाद का अभिप्राय उस दर्शन से है जिसका केन्द्र एवं प्रमाण दोनों मनुष्य ही हैं। पश्चिमी देशों में इस विचारधारा के कारण धर्म, दर्शन, ज्ञान एवं साहित्य आदि क्षेत्रों में कई नई मान्यताओं का जन्म हुआ।
14 वीं से 16 वीं शताब्दी के बीच मानववादी विचारधारा का केन्द्र इटली रहा। यहां पेटार्क, बोक्कासियो, लारेन्जोवाला, पिकोडेला मिरांडोला, लियोनार्डो दा विंसी, राफेल एवं माइकेलान्जेलो आदि चिन्तकों ने मानववाद की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की और उसका प्रचार प्रसार किया। इटली के बाद ही अन्य यूरोपीय देशों में मानववादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार हुआ। फ्रांस में मोन्टेग्ने और रेब्लेइस, इंग्लैंड में शेक्सपियर और एफ बेकन, स्पेन में एल वाइब्स और सरवेंटीज, जर्मनी में यू हटन और ड्यूरर एवं इरास्मस ने अपने-अपने देशों में मानववादी विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
मानववाद धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध मनुष्य की स्वतंत्रता की घोषणा करता है जो मनुष्य के सुख एवं भौतिक इच्छाओं के परितोष की भावना पर आधारित है। इसी के कारण मानव अधिकारों को विकसित करने के लिए स्वतंत्रता, समता एवं भ्रातृत्व का नारा दिया। मानववादी चिन्तकों ने मध्य युग के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए विचार एवं व्यवहार दोनों स्तरों पर मनुष्य के पक्ष में आवाज बुलंद की। चिंतन की यह पद्धति विकसित होती हुई पूरी दुनिया में फैली और पूरी दुनिया के मानववादी चिन्तकों ने माना कि मानव इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति है और इस सृष्टि के सम्पूर्ण कार्य-व्यापार मनुष्य के विकास को ध्यान में रखकर किए जाने चाहिए।
17 वीं शताब्दी में देकार्त, लाइबनिट्ज़ एवं स्पिनोजा आदि मानववादी चिंतकों ने विवेक एव तर्क को प्रधानता दी और मनुष्य की महत्ता का प्रतिपादन किया। 18 वीं शताब्दी में मानववादी विचारधारा की प्रतिष्ठा फ्रांस की महान क्रान्ति ( French Enlightenment ) के दौरान हुई। इस समय के प्रमुख चिंतकों में मांटैस्क्यू, वाल्तेयर, हेल्वेटियस, हालबैक, डेग्रेट आदि ने मनुष्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। इन चिंतकों के अनुसार, मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे आत्मज्ञान है, सुख-दुख की अनुभूति है, जो उचित-अनुचित का ज्ञान होता है। उन्होंने मनुष्य की उत्पत्ति के धार्मिक, आध्यात्मिक व्याख्या का विरोध किया और कहा कि मनुष्य प्रकृति का ही हिस्सा है।
19 वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति हुई और एक बार फिर नए सिरे से पूंजीवादी व्यवस्था में मनुष्य के अस्तित्व और महत्व पर चर्चा शुरू हुई। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप जिस व्यावसायिकता की शुरुआत हुई उसने सभी मानवीय मूल्यों को लुप्तप्राय सा कर दिया। इसी अवधि में दो विश्व-युद्ध भी हुए जिसमें विश्व ने मानवीय मूल्यों के ह्रास का चरम रूप देखा। इस व्यावसायिक और यान्त्रिक व्यवस्था में मनुष्य एक साधन मात्र बनकर रह गया था। व्यक्तिगत सम्पत्ति की प्रधानता और श्रम विभाजन के फलस्वरूप मनुष्य से मनुष्य के बीच की दूरी लगातार बढ़ती चली जा रही थी। ऐसे समय में व्यक्तिगत सम्पत्ति की आलोचना करते हुए टी मॉरे, कम्पानेला, मॉरेल और जी मॉबले ने विचार प्रस्तुत किया कि यदि व्यक्तिगत सम्पत्ति को सामूहिक सम्पत्ति के अंतर्गत अधिकार दे दिया जाए तो मानव जाति का कल्याण संभव है।
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मानववादी विचारधारा में एक नया आयाम मार्क्सवाद के उदय के साथ जुड़ा। कार्ल मार्क्स ने कहा कि मनुष्य की स्वतंत्रता आवश्यक है और वह तभी स्वतंत्र हो सकता है जब वर्तमान शोषणकारी पूंजीवादी व्यवस्था से मनुष्य को मुक्त कराया जाए। इसीलिए मार्क्स अपने जीवनपर्यंत पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एवं श्रमिक वर्ग के संगठन के लिए संघर्ष करते रहे। मार्क्स को आशा थी कि उनकी विचारधारा मानववाद के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगी।
मानववाद के संदर्भ में उक्त सभी विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मानववाद मनुष्य को स्वतंत्र मानता है। इस विचारधारा के अनुसार, मनुष्य स्वयं के संकल्प के अतिरिक्त किसी के भी अधीन नहीं है। मनुष्य में अनंत शक्तियां सुशुप्तावस्था में पड़ी रहती है उन्हें सही दिशा में विकसित करने की आवश्यकता है। मनुष्य ही अपने प्रयासों के द्वारा सम्पूर्ण मनुष्य जाति को एक सूत्र में बांध सकता है अर्थात मानव से मानव की एकता स्थापित करना भी मानववाद का उद्देश्य है।
भारत में मानववादी विचारधारा का इतिहास
भरतीय चिंतन में मानववादी विचारधारा का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों में भी समस्त चिंतन का केन्द्र मनुष्य ही रहा है। ऋग्वेद में कहा गया है कि धनी व्यक्ति को बाद के जीवन की हानि को देखते हुए जरूरतमंद व्यक्ति की मदद करनी चाहिए, क्योंकि धन गाड़ी के पहिए के समान घूमता रहता है। वह आज एक व्यक्ति के पास है तो कल किसी दूसरे व्यक्ति के पास चला जाता है। ऋग्वेद की यह उक्ति उसके मानववादी प्रव्रित्ति का द्योतक है। आतिथ्य सत्कार की गणना महान पुण्य कर्मों में की गई है। वेदों में लिखित नैतिक विधान सद्गुणों से ओत-प्रोत हैं जो मानववाद को ही प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार आर्यों के समस्त कर्मकांड और चिंतन के केन्द्र में मनुष्य ही है।
उपनिषदों में भी मानववादी चिंतन के अनुसार आत्मा को प्राण एवं ब्रह्मा से अभिन्न बताया गया है। ‘तत्त्वमसि’, ‘अहंब्रह्मास्मि’, ‘अयं आत्माब्रह्मा’, आदि वाक्य इसके जीवंत उदाहरण हैं। छान्दोग्योपनिषद में उद्यालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहते हैं जो सूक्ष्मसार तत्व है वही इस समस्त संसार में आत्मा के रूप में व्याप्त है। वही सत्य है, वही आत्मा है, वही तुम हो श्वेतकेतु। उपनिषदों में आत्मा अर्थात मनुष्य को ही ब्रह्मा कहा गया है एवं मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। अनीश्वरवादी मत को मानने वाला बौद्ध धर्म भी मानववादी ही कहा जा सकता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, मनुष्य का अस्तित्व इतर, निरपेक्ष एवं स्वतंत्र है, उसे अपने प्रयत्न द्वारा दुखों से छुटकारा पाना है। भक्ति आन्दोलन में भी हमें मानववाद के स्वरूप दिखाई देते हैं। भक्ति आंदोलन के चिंतक अन्याय एवं उत्पीड़न के खिलाफ मनुष्यों के बीच समानता और भ्रातृत्व का समर्थन करते हैं।
मध्य-युग के बाद आधुनिक युग में भी मानववाद के परिप्रेक्ष्य में भारतीय चिन्तकों ने कई बातें कहीं। भारतीय पुनर्जागरण के मूल में व्यक्ति की स्वतंत्रता का विशेष महत्व है। न्याय की दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं जैसे विधान का प्रसार बढ़ा। इस समय फ्रांसीसी क्रांति के मूल आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के विचारों से प्रभावित एक नए भारत का जन्म होता है। राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, विवेकानंद, महादेव गोविन्द रानाडे, महात्मा गांधी, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, एम एन रॉय आदि चिन्तकों ने मानववादी विचारधारा का प्रसार किया।
पुनर्जागरण कालीन भारत के जनक माने जाने वाले राजा राममोहन राय का जिस समय भारतीय राजनीतिक चिन्तन में प्रवेश हुआ, उस समय मनुष्य की अस्मिता संकट में थी। धार्मिक आडंबरों एवं सामाजिक कुरीतियों का बोलबाला था। व्यक्ति की प्रतिष्ठा व्यक्ति के रूप में नहीं थी। उन्होंने ब्रह्म समाज ( 1828 ई ) के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते हुए मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह का समर्थन और सती प्रथा का विरोध कर उन्होंने स्त्री जाति को मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। जाति प्रथा को अमानवीय सिद्ध करते हुए धार्मिक संकीर्णता की भी कठोर आलोचना की। उनका मानवीय दृष्टिकोण किसी भी धर्म को मनुष्य के संदर्भ में तर्क की कसौटी पर परखने की वकालत करता है। इसी कारण एम ए बुच ने अपनी पुस्तक “Liberalism in India” में राजा राममोहन राय को बेकन, डेकार्ट एवं लूथर जैसे प्रमुख मानववादी चिन्तकों की श्रेणी में रखा है।
राजा राममोहन राय के बाद ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा का समर्थन किया और बहु विवाह व बाल विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया। केशवचन्द्र सेन, महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा फूले आदि ने समाज में फैली कुप्रथाओं का विरोध करते हुए समतामूलक मानव समाज की स्थापना का प्रयास किया। मानववादी चिंतन की इस परंपरा में महात्मा गांधी का मानववाद भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। गांधी भी मनुष्य में निहित आंतरिक क्षमता में विश्वास करते हैं, वे मनुष्य को अनन्त शक्तियों का पुंज मानते हैं एवं मनुष्य की अबाध स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।
इस प्रकार पश्चिमी और भारतीय मानववादी चिन्तकों का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मानववाद एक ऐसी विचारधारा है जिसमें मनुष्य के हित को सबसे प्रमुख माना जाता है। इन मानव हितों को या तो अलौकिक शक्तियों की प्रेरणा से प्राप्त किया जा सकता है या अलौकिक शक्तियों से प्रेरणा प्राप्त किए बिना मनुष्य स्वयं के प्रयत्न द्वारा प्राप्त कर सकता है। मानववाद विश्व-बंधुत्व की बात करता है क्योंकि उसका मानना है कि सभी मनुष्य एक ही हैं। इसका लक्ष्य है मनुष्य की महत्ता को इस सृष्टि में स्थापित करना। मनुष्य का शरीर पाना सौभाग्य की बात मानी जाती है। इसी की अनुगूंज नहि मनुषात् श्रेष्ठतरो हि किञ्चित में सुनाई देती है। इसी की प्रतिध्वनि बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथाहि गावा। यही मानववाद है।
लेखक- डॉ अरुण कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर, लक्ष्मीबाई कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय। सम्पर्क- 8178055172, 09868719955, arunlbc26@gmail.com